बुधवार, 31 मार्च 2010

आसमान से मैंने देखा सूर्यास्त ...(केरल यात्रा संस्मरण -३)

एअर इंडिया का यह विमान तनिक आधुनिक साज सज्जा लिए था -सभी यात्रियों के ठीक सामने यानि की अगली सीट के पीछे मानिटर था कुछ कुछ वैसे ही  जैसे  कभी अपनी  एक विज्ञान कथा जो चन्द्र उडान पर थी में वर्णित था ...कुछ पल के  लिए ऐसा लगा कि मैं अपनी उस कहानी मोहभंग का एक पात्र हो गया हूँ -मानिटर पर प्लेन के उडान के क्षण  प्रतिक्षण का लोकेशन दिख रहा था -विमान दिल्ली से  भारत के बिलकुल मध्य रेखा में (नीचे )तेजी से आगे बढ रहा था ..वैसे तो प्लेन के सहयात्री  बिलकुल निःसंग होते हैं, आजू बाजू से कोई मतलब नहीं होता उनका -एक इम्पेर्सोनल सा भाव होता है -मगर बगल की सीट पर एक प्रोफ़ेसर साहब थे -न उन्हें मानीटर के चैनलों पर चल रही फिल्मों में कोई रूचि थी और न मुझे ही ..हाँ कुछ देर तक मैंने पशुओं की न्यारी  दुनिया पर एक डॉक्यूमेंट्री जरूर देखी .अब पता नहीं पहल किसने की मगर हम थोड़ा बतियाने लगे थे -प्रोफ़ेसर साहब थोडा मजाकिया /मनोविनोदी स्वभाव के थे -पहले तो  मुझसे किंगफिशर की फ्लाईट छूट जाने पर  उन्होंने जब कुछ ज्यादा ही अफ़सोस जताया तो मेरी उत्कंठा मुखर हो आई ...
"ऐसा भी क्या था किंगफिशर में ..? ."
"कमनीय कंचन काया परिचारिकाएँ और लाजवाब भोजन और कुछ उपहार भी ..."
"ओह " फिर मेरी दुखती रग फिर जैसे छेड़ दी गयी हो एक ठंडी उच्छ्वास  अनायास ही निकल पडी .
"अब एयर  इंडिया की परिचारिकाओं को तो देखिये ...मतलब इनमें अब देखने को रह ही क्या गया है ...हा हा हा  "
६५ वर्षीय प्रोफ़ेसर की वाईटल सांख्यिकी में रूचि ......मैं थोडा असहज  हुआ ..इसलिए नहीं कि मैं कोई निस्पृह विरत रागी योगी हूँ बल्कि इसलिए कि बात कुछ अन्य सदर्भों को लिए हुए थी -क्या औरतों को नौकरी से केवल इसलिए निकाल देना चाहिए कि वे कमनीय नहीं रहीं .....यह तो मानवता का तकाजा नहीं है ..मैंने प्रोफ़ेसर से अपना ऐतराज जताया .मगर उनके पास मानो उत्तर पहले से ही तैयार था ....
" यह व्यावसायिकता का युग है -किंगफिशर जैसी एअरलायिने यात्रिओं को विभिन्न तरीकों /कम्फर्ट से आकर्षित कर रही हैं ..एअर इंडिया में हम और आप गरजू लोग ही अब यात्रा को रह गए हैं ......" यह एक अंतहीन सी वार्ता थी ...
                                                             .... और यूं सूर्यास्त हो गया !
इस लम्बी हवाई यात्रा  का सबसे रोमांचपूर्ण क्षण वह था जब लगभग पौने सात बजे शाम हमने कोचीन पहुँचने  के पहले  ही  मुम्बई से थोडा आगे बढ़ने पर सूर्यास्त का नजारा देखा -वायुयान में आसमान और धरती का मिलन/क्षितिज हेजी हेजी सा नहीं बल्कि बहुत स्पष्ट दिखता है -लगता है कि एक स्पष्ट विभेदक रेखा दोनों जहां को अलग वजूद दे रही है -और उसी रेखा पर कोई २  मिनट तक सूर्य हिलकोरे लेता हुआ दिखा और फिर नजरों  से ओझल हो गया ....और लो शुक्र ग्रह भी दिखने लगा -बिलकुल साफ़ और चमकीला -अब करीब सात हजार मीटर  की ऊँचाई पर जहाँ न कोई गर्द गुबार ,न कोई प्रदूषण हो आकाशीय पिंड इतने साफ़ क्यों न दिखें ! मगर हाँ दूसरे तारे तो तो नहीं दिखे मैंने इधर उधर बहुत गरदन घुमाई .अचानक  सामने के मानीटर पर नजर गयी -बाहर का तापक्रम माईनस ४० डिग्री था ..सोचकर ही कंपकपी छूट  गयी!

आगे की यात्रा कोई ख़ास घटना पूर्ण नहीं थी ..हाँ जब कोचीन उतरने पर  हम तो यान में ही बैठे रहे मगर इक रोचक बात हुई -दो जन आये और उन्होंने मांग की उनकी सीटे खाली कर दी जायं जिन पर हम बैठे थे-हद है उन्हें हमारी ही सीट कोचीन से अलोट थी -प्रोफ़ेसर साहब  भुनभुनाये -देख  लिया न एअर इंडिया की करतूत ....बहरहाल सीटें कोचीन में बहुत खाली हो गयीं थी और परिचारक उन्हें अलग सीट पर बाइज्जत बैठाने  का जतन  करने में लग गए थे -हमने भी कह दिया था कि भाई लोग हम शुरू से जहां से बैठे हैं आखीर तक वहीं बैठे रहेगें ....हजरते दाग जहाँ बैठ गए बैठ गए ...(धीरे से बुदबुदाया था  मैं ) .
..
ठीक दस बजे हम तिरुवनंतपुरम पहुँच गए थे .मुझे लेने मेरे मित्र और मत्स्य फेडरेशन केरल के डी  जी एम डॉ के .शोभना कुमार आये हुए थे -हम ठीक आमने सामने ही खड़े एक दूसरे को मोबिलिया रहे थे ...वे धोती पहने थे और मैं मोटा हो गया था इसलिए एक दूसरे को पहचान नहीं पा रहे थे .....यात्रा का एक बड़ा हिस्सा पूरा हो गया था ....अब कल से केरल परिभ्रमण शुरू होना   था ....
जारी .....
आसमान से मैंने देखा सूर्यास्त ...(केरल यात्रा संस्मरण -३)

मंगलवार, 30 मार्च 2010

आखिर चल ही पड़े तिरुवनंतपुरम की ओर ....(केरल यात्रा संस्मरण -2)

यह सच है कि मित्रता की असली पहचान कठिन समय में ही होती है -दिल्ली  से किंगफिशर की १० बजे की तिरुवनंतपुरम की फ्लाईट छूट  जाने से मेरा पूरा यात्रा प्लान ही खटाई में पड़ चुका था .दिल्ली से ३००० किलोमीटर की दूरी अब कैसे पार होगी यह  सोच सोच कर रूह जो कांपनी शुरू हुई तो कांपती ही जा रही थी  .पता नहीं गर्मी की वजह से या अपने अहसासों के चलते हम पसीने पसीने हुए जा रहे थे-मेरा विभागीय दल तीन दिन पहले यानि २० मार्च को ही बनारस से कूंच कर चुका था और तिरुवनंतपुरम अपने पूर्व नियत समय पर शाम को ६ बजे पहुँचने वाला था -उनकी ट्रेन जैसे मुझे चिढाती हुई समय से ही चल रही थी -प्लान के मुताबिक़ मुझे किंगफिशर की फ्लाईट से वहां ३ बजे तक पहुंच कर उस दल को रिसीव करना था -अब एक ही  चारा था कि देखा जाय कि कोई और प्लेन मिल जाय तो बात बन जाय -पर मेरे पास तत्काल इतने पैसे नहीं थे-तनिक  टेक्नोलोजी फोबिक होने के नाते  बेटे के बार बार कहने पर भी मैं अपना ऐ टी एम कार्ड साथ नहीं  रखता -और ऊपर वाले की आज तक मुझ पर यह कृपा रही है कि   किसी से पैसे मांगने की कभी नौबत  नहीं आई और आये  तो मैं मांगूं भी नहीं  .यह मेरे लिए आत्महत्या कर  लेने के समान है .यह अलग कथा है ,विषयांतर हो जायेगा ! यहाँ भी   बड़ी विपरीत स्थिति हो गयी थी कि आखिर किया क्या जाय और जो करना था जल्दी करना था -समय मानो पंख लगाकर उड़ चला था ...मेरे रेल यात्री दल के मुखिया  बार बार पूंछते जा रहे थे  कि सर आप कहाँ हैं और कब तक पहुँच रहे हैं और जब उन्होंने यह सुना कि मेरा  प्लेन छूट गया है तो पूरे दल में  चिल्ल पों मच  गयी  -अनजान जगह अनजान लोग अनजान बोली भाषा  -वे डर से गए थे. अचानक याद आया अपने एक मित्र का जो एयर इंडिया में थे-के पी सिंह .मैंने २००२ में जो मोबाइल नंबर  लिया वही  अभी भी मेरे साथ है मैंने कभी उसे बदला नहीं !कारण ? टेक्नोफोबिया ही !! मेरे मोबाइल में एक हजार से अधिक ही नंबर सेव है -के पी सिंह का नंबर मिल गया -एक बार में ही फोन लग गया -उन्होंने तुरंत रेस्पांड किया .
"भाई सिंह साहब ,दिस   इज  ऍन  एस ओ एस ..ऍन इमरजेंसी प्लीज ..."
" बताईये न क्या बात है ?"
और मैंने एक सांस में ही सारा वाकया बयान कर दिया .....
"आप ज़रा भी   परेशान न हों मैं आधे घंटे में आपको रिंग बैक करता हूँ ..."
उन्होंने ढांढस  दिया  तो कुछ जांन  में जांन  आई ...पर मन  में तो अभी भी तरह तरह की शंकाएं उमड़ घुमड़ रही थीं -जेब भी तो तंग थी ....ठीक आधे घंटे बाद उनकी काल आ गयी ...
"बॉस आपकी सीट इन्डियन एरलाईन्स की फ्लाईट आई सी ४६५ में बुक हो गयी है ,यह दिल्ली से शाम साढ़े पॉँच बजे हैं और तिरुवनंतपुरम रात दस बजे पहुंचेगी ..आप एअरपोर्ट पर पहुंच कर अपना पी एन आर नंबर हमारे काउंटर पर बताईयेगा और आई डी प्रूफ दिखाकर अपना टिकट ले लीजियेगा -पी एन आर मैं अभी एस एम एस कर रहा हूँ ...."
"पैसे सिंह साहब .?.." 
"  लौट कर दे दीजियेगा बॉस ..अभी  आप टेंशन फ्री हो जाईये ..."
"मगर मुझे देना कितना होगा -मेरे संशयों ने मुझसे चिरकुटई करा ही  दी"
" बास, लोवेस्ट फेयर इकोनोमी क्लास में आठ हजार चार सौ रूपये ...यह दिल्ली से त्रिवेंद्रम का  का न्यूनतम फेयर है "
" ठीक है सिंह साहब थैंक्स अ लाट ....यूं हैव सेव्ड माय टूर प्लान  ....." और मैंने एक गहरा सांस  लिया ..अचानक ही सब कुछ हल्का महसूस होने लग गया .हल्का और बेपरवाह सा! बस अब एयरपोर्ट पहुंचना रह गया था -समय बहुत था मगर वो क्या है कि दूध का जला छांछ को भी फूक फूँक कर पीता है इसलिए टैक्सी पकड़ी और इंदिरा गान्धी इंटरनेश्नल एअरपोर्ट के डोमेस्टिक फ्लाईट टर्मिनल १ ऐ पर बहहुत जल्दी ही पहुँच गया  -टिकट आसानी से मिल गया -वेटिंग लाउंज में पहुँच कर राहत की सांस ली .अब कुछ दिल्ली के ब्लागरों को अपनी व्यथा अपने ३जी  मोबाइल के जीमेल अकाउंट और फेसबुक से मेल भी की -मगर महानगर में किसे किसकी सुध है -कोई हेलो हाय भी नहीं हुआ -प्लेन के प्रतीक्षा की घड़ियाँ मानो पहाड़ सी बीत रही थीं -ऐसे में कितना ही अच्छा होता  गप शप के लिए कोई फालतू ब्लॉगर ही  मिल जाता -अब दिल्ली जैसे महानगर में कोई फालतू ब्लागर ? वे तो छोटे छोटे नगरों जैसे  इलाहाबाद और बनारस में ही  मिलते हैं -आये दिन हांका लगता ही रहता है ,अरे भाई मिश्रा जी हम बनारस पहुँच रहे हैं आपसे मिलना है -और हम छोटे शहरों के ब्लॉगर कितना फालतू हैं न -हर वक्त सुलभ हैं! आप भी  जब चाहें ट्राई कर सकते हैं . मगर सच यह भी है कि दिल्ली का विस्तार और महानगरीय समस्याएँ लोगों को बहुत सहज होने से हठात रोक देती हैं ..कोई उलझन ही रही होगी जो वो भूल गया मेरे हिस्से में कोई शाम सुहानी लिखना ...अब इतना बुडबक भी  नहीं हैं हम ......

बहरहाल ले देकर किसी तरह अकेलेपन का साढ़े पांच बजा और ठीक समय पर हम उड़ चले तिरुवनंतपुरम की ओर ....भारत की लम्बी डोमेस्टिक उड़ानों में से एक उडान ......दिल्ली एयरपोर्ट का  सिक्योर्टी होल्ड लाउंज और उसमें लगे दो बड़े अक्वेरियम बहुत आकर्षित कर रहे थे-एक दक्षिण भारतीय व्यंजनों का काउंटर   है -वहां कुछ क्षुधापूर्ति भी हुई-मीनू की दरें तो आसमान छूती हैं मगर खाने के आईटम पूरे यम यम हैं .दिल्ल्ली से कोचीन होकर इस विमान  को दस बजे तिरुवनंतपुरम  पहुंचना था ...एक लम्बी यात्रा थी यह .....

जारी ....

रविवार, 28 मार्च 2010

..और इस बार फ्लाईट छूटी..(केरल यात्रा : संस्मरण -१)

लीजिये ,एक अल्पान्तराल के बाद फिर हाजिर हूँ .इस बीच विभागीय कार्य  से केरल यात्रा कर आया .सोचा था कि इस बार यात्रा की अपनी परेशानियों जिनसे अपुन का  चोली दामन का साथ है से ब्लागर मित्रों को बिलकुल भी क्लांत नही करूंगा .घर में तो "जहाँ जाईं गग्घोरानी तहां  पड़े  पत्थर पानी ' के कहावत को चरितार्थ करने वाला तनखैया घोषित हो ही चुका हूँ अब ब्लागजगत में भी अपनी यह लंठ इमेज रूढ़ करना खुद के फेवर में नही - किसी के साथ यात्रा आमंत्रण का  स्कोप भी खत्म !-कौन चलेगा हमारे साथ, जहाँ पग पग प्रयाग की कौन  कहें पग पग परेशानियां मानो स्वागताचार के लिए खडी हों .मगर मैं इसे दूसरे नजरिये से भी देखता हूँ -अपनी परेशानियों से अगले को कुछ सीख मिल जाए तो चलो परेशानियाँ भी सार्थक हो जाएँ .हाँ अगर अगला पहले से ही होशियार हो और मेरी तरह ही गोबर गणेश न हो तो बात दीगर है -मगर वो कहते हैं न कि दूसरो के अनुभव से बुद्धिमान   सीखते हैं और अपनों से मूर्खजन!
तो हे बुद्धिमान ब्लागरों तुम भी सुनि लो कान लगाये केहिं विधि केरल से हम लौटे हैं आय!
प्रस्थान 
पहले हम लालू को कोसते नहीं अघाते थे और अब दीदी ओ दीदी को लानत  मलामत  भेज रहे हैं -ट्रेनों के सञ्चालन शायद इन दिनों बहुत ही बुरे दौर  से गुजर रहा है -मुझे २३ तरीख को दिल्ली से किंगफिशर एयर लाईन्स से १० बजे सुबह तिरुवानंतपुरम ,केरल पहुंचना था .सहृदय दुखी होंगे और मेरे अ -हितैषी सुखी कि मेरी यह फ्लाईट छूट गयी -मैंने बनारस  से श्रमजीवी  सुपर फास्ट एक्सप्रेस से २२  तारीख को यहाँ से (बनारस ) से दिल्ली जाने का यात्रा कार्यक्रम बनाया था -जो यहाँ ३ बजे अपराह्न चल कर अगले अल्लसुबह दिल्ली साढ़े पांच बजे पहुंचती है -अब कोई तो बताये कि समय का इतना मार्जिन  क्या  ठीक नही था ? मगर ट्रेन ही पटना से बनारस पहुँचने में तीन घंटे लेट हुई और लेट होते होते दिल्ली सवा  दस पहुंची!  हाल यह था कि  भक्क भक्क गाड़ी चले और धक्क्क धक् दिल होए -हम पूरे  भकुए बने अपने भाग्य को कोसते रहे -अब ट्रेन  में रहकर क्या क्रायसिस मैनेज की जाय ? जहाज का टिकट भी तो नान रिफंडैबल श्रेणी  का ही था (रिफंडिबल श्रेणी काफ़ी महंगी होती है सो नहीं ले सके थे) -किसी तरह किंगफिशर एयर लाईन  से सम्पर्क हुआ तो वह भी नौ बजने के बाद दूसरे दिन! जहां से बहुत विनम्रता से कहा गया कि सर  फ्लाईट तो ठीक समय पर है और आपने अगर दस बजने के एक घंटा पहले भी बता  दिया होता तो हम आपको "नो शो " नहीं ट्रीट करते यानी आपको कुछ पैसे रिटर्न हो जाते -अब तो आपका नाम 'नो शो ' कटेगरी में आया गया है यानि आपने प्लेन छूटने के एक घंटा पहले तक अपनी यात्रा निरस्त होने की कोई सूचना नही दी अतः अब हम आपकी कोई  मदद नहीं कर सकते .पूरे आठ हजार गये पानी में .....बहरहाल एयरपोर्ट जाने पर यह जानकारी हुई कि टैक्सेज वगैरह रिफंड होंगें -मामला प्रगति पर है .सीख मिली है कि  भारतीय रेल कतई  भरोसे मंद नही रह गयी है यह आपके महत्वपूर्ण अपायिन्टमेंट ,इंटरव्यू   और तो और किसी के अंतिम दर्शन तक छुड़वा सकती है . मेरे एक सह यात्री कोई बिष्ट जी अपने  पिता के अन्तिम दर्शन नही कर  सके -ठीक नौ बजे उन्होंने अन्तिम सांसे  ले लीं -पुत्र की प्रतीक्षा करते करते पथरा गयीं  आँखें मरणासंन्न बाप की -बिष्ट साहब फफक पड़े -उनके दुःख के आगे मेरा दुःख कितना कम हो गया -बिचारे फोन पर ही  रोगी बाप के परिचारकों को जिनमें उनकी पत्नी भी थीं को बस पहुंच रहा हूँ बार बार कहते ही रह गये .

आखिर कोई जवाबदेह है इस अन्धेर गर्दी का ? एक सुपरफास्ट पॉँच घंटे लेट हो गयी  और होती ही चली गयी -पश्चिमी देशों
में तो यह अनहोनी है और ऐसी अनहोनी घट भी गयी तो  पूरी भरपाई! यहाँ के रेल के रूल तो कपटपूर्ण हैं -धूर्त्तता भरे -यात्रियों की सुविधा गयी भाड़ में!अनुभवी  लोगों ने बताया कि इन दिनों अपने कार्य  के नियत समय से दस घंटे की मार्जिन का यात्रा प्रबंध (ट्रेन यात्रा ) करना समझिये अनिवार्य हो गया है .

बहरहाल आनन फानन इन्डियन एयरलाईन्स की शाम साढ़े पांच बजे  की टिकट का इंतजाम हो पाया और हम प्रतीक्षारत हो लिए .......
जारी प्रतीक्षा .........

गुरुवार, 18 मार्च 2010

पिछले दिनों देखी दो फिल्में -दोनों हल्की फुल्की मगर मजेदार

मैंने बीते हप्ते में दो फिल्मे देख डाली .दोनों ही हल्की फुल्की कामेडी .मगर मजेदार .पैसा वसूल .एक तो अतिथि कब जाओगे और दूसरी न घर के न घाट के .औपचारिक समीक्षाएं आप दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं ,यहाँ इन दोनों फिल्मों की उन खास बातों की चर्चा जिनके चलते यह पोस्ट लिखनी पड़ रही है और आपका व्यस्त समय जाया करना पड़ रह है .मैं इन दोनों फिल्मों को देखने की सिफारिश करता हूँ -हर  उम्र  के लोगों को -जो खुद चल के जाएँ तो जाएँ ही और सहारा लेकर जाने वाले भी हाल में दाखिल  हो लें .फिर तो हा हा ही ही का ऐसा आलम होगा कि पता ही नहीं चलेगा कि फ़िल्म कब खत्म हो गयी .आज की इस आपा धापी की  दुनिया में मुक्त हास्य दुर्लभ है -दोनों फिल्में ऐसा गुदगुदाती हैं कि दबी हंसी भी फूट पड़ती है .

पहली फ़िल्म गाँव से शहर पहुंचे सही मायनों में एक गवईं अतिथि (बिना तिथि घोषित किये जो टपक पड़ता हो) के सहज व्यवहार और शहरी जीवन के मिथ्याचार /बनावटीपन (sophistication ) के अंतर्द्वन्द्व से सहज ही उपजे हास्य को फोकस करती है .वह शहर के आत्मकेंद्रित जीवन पर भी चोट करती है जहाँ पड़ोसी पड़ोसी तक को नहीं जानता .जबकि गाँव से आया एक व्यक्ति सहज ही नए जगह में सामाजिकता को पुनर्जीवित कर देता है और अहसास दिला देता है कि मनुष्य की सामाजिकता की प्रवृत्ति मुखौटों के बीच भले ही छिप गयी है मगर है वह मूलतः एक सामाजिक प्राणी ही -अतिथि के जाने की   दुहाई करता शहरी परिवार जब उसकी सामाजिकता के चलते जीवन का एक नया पहलू ,एक नया  अंदाज देखता है तो उनकी आंखे खुल जाती है .फ़िल्म यह पावरफुल सन्देश देती है कि जहां भी रहें थोड़ी सामाजिकता जरूरी है -यह आपको दुनियावी फायदे भी  दिलायेगी साथ  ही जीवन को एक नया अर्थ भी दे देगी .कुछ निहायत ही खुदगर्ज लोगोंको  यह फ़िल्म उनका घिनौना अक्स भी दिखलाएगी.बस परेल रावल जिन्होंने गवईं अतिथि की भूमिका की है द्वारा  बार बार प्रदूषित वायु प्रक्षेपण के दृश्यों को छोड़ दें तो फ़िल्म साफ़ सुथरी है -पूरे परिवार के साथ देखने लायक .

दूसरी फिल्म भी गवईं जीवन की सहजता और भोलेपन और शहर की चंट जिन्दगी को आमने सामने ला खडी करती है -एक ओर मूर्खता की हद तक भोलापन है तो दूसरी ओर मक्कारी  की हद तक होशियारी .इनी विरोधाभासों से सहज हास्य उपजाती फ़िल्म बहुत अच्छी बन पडी है .गाँव के कई सीन तो हँसते हँसते पेट में बल ला देते हैं -पर शायद उन्ही को जो गाँव की जिन्दगी को थोडा ही सही करीब से देखे हों -एक सीधे सादे गाँव के आदमी को महानगर के जीवन में कितनी जलालत  झेलनी पड़ती हैं और शहर के लोग पल पल में  शोषण करने को तैयार रहते  हैं मगर  कुछ सहृदय लोग कैसे मदद के लिए आगे आ जाते हैं फ़िल्म प्रभावपूर्ण ढंग से सामने लाती है . धुर भुच्चड गाँव और आधुनिक महानगर मुम्बई किन बिन्दुओं पर आकर मिल जाते हैं यह भी मार्मिकता से उकेरती है न घर के न घाट के फ़िल्म .समय मिल जाय तो देख ही लें !

बुधवार, 17 मार्च 2010

आओ ब्लागवाणी पर पसंद- नापसंद खेलें!

अपने नए कलेवर में ब्लोगवाणी रूप रंग और सौन्दर्य की इन्द्रधनुषी छटा बिखेर रही है. कई नए आकर्षण इससे आ जुड़े हैं .इन्ही में एक पसंद नापसंद  का भी विकल्प है -मतलब आपको  फ्रीडम  है कि किसी भी पोस्ट को उसके आपत्तिजनक कंटेंट के कारण  आप उसके लिए अपनी आपत्ति नापसंद के तौर पर व्यक्त कर सकते हैं -नापसंद के आप्शन पर चटका लगा सकते हैं . यह एक उदात्त  सोच का  नतीजा है और   हिन्दी ब्लागजगत में लोकतांत्रिक सोच को बढ़ावा देने का एक कारण -एक मौका भी .मगर जैसा कि हम भारतवर्षी महान करते आये हैं दीगर सेवा -सुविधाओं की तरह   इस सहृदयता से सुलभ कराये गए सेवा की भी ऐसी  की तैसी करने पर जुट गए हैं .

आज ही अवधिया जी की ब्लोगवाणी पर पसंद कैसे बढ़ाएं के व्यंग लेख पर पॉँच नापसंद अभी तक आ चुके हैं.मैंने विगत दिनों से इस आप्शन के उपयोग और दुरूपयोग पर अपनी नजर रखी है और अपने कुछ प्रेक्षण आपसे साझा करने चाहता हूँ .पहले निष्कर्ष ही बता दूं -इस सुविधा का दुरूपयोग हो रहा है जो हमें आत्मविश्लेषण करने को मजबूर कर   रहा है कि शायद  अभी हम इस स्वतंत्रता के उपभोग के लिए परिपक्व नहीं हुए है .भला क्यों ? शुरू शुरू में मैंने मार्क किया कि केवल कुछ लोगों की पोस्ट पर नापसंद का चटका लग रहा है -पाबला जी ,अजय झा और यह खाकसार किसी एक सज्जन के टार्गेट पर रहे .जैसे ही पोस्ट ब्लोगवाणी के हाट स्तम्भ पर आई  नहीं की ये लो नापसंद -मतलब यहाँ भी निजी खुन्नस -पोस्ट के कंटेंट से कोई मतलब नहीं .अब खुन्नस का बदला अगर खुन्नस से हो तो लो बन गयी ब्लागवाणी गंदे खेल का मैदान -गाँव में इसी को कहते हैं -"न खेलब  न खेलई देब बस खेलवई बिगाड़ब"-मतलब खेल भावना से विपरीत जाकर केवल नंगई का प्रदर्शन -एक सुविधा और सौजन्यता  का निर्लज्ज उपहास! अब दूसरा मामला देखिये जो और भी रोचक रहा -यह देखा गया कि किसकी पोस्ट नंबर वन पर पहुँच रही है तो झट से नापसंद  का चटका लगाकर उसकी बढ़त को रोक रखा गया ताकि उसके ठीक नीचे के एक दो पावदान पीछे के पसंद की पोस्ट टाप पर पहुँच सके! अब इसके पीछे वहीं लोग हो सकते हैं न जो हमेशा टाप पर दिखना चाहते हों हर कीमत पर  -हुक ,आर बाई क्रुक ! वो कहते हैं न कि प्यार और युद्ध में सब जायज है -अब ब्लोगवाणी टीम कितनी ही नेक भावना से इस निःशुल्क सेवा को बरकरार करने में जुटी हो हमारे में से कितने लोगों को यह प्यार का या युद्ध / निपटने का मैदान ही नजर आता है -सुबह शाम लोटा उठाये चल दिए -झाडा फिर, वापस! अब किसी खास को क्या दोष ,यह तो हमारी सार्वजनिक सोच ही है गंदगी फैलाना और अपने चारो ओर गन्दगी फैलाए रहना .

नापसंद का विकल्प ब्लोगवाणी टीम ने अपनी उस उदात्त सोच के तहत दिया होगा जिसमें आपसी  वैमनस्य बढ़ाने वाली पोस्टें ,साम्प्रदायिक सोच को दर्शाने वाली पोस्ट पर अमन चैन और दैनिक जीवन में गुणवता के हिमायती लोग अपनी प्रतिक्रिया  को मुखर कर सकें -मगर यहाँ तो खेल ही दूसरा शुरू हो गया -मानो लोगों को अपनी आपसी खुन्नस और श्रेष्ठता  साबित करने का सहसा ही एक  'ईश्वरीय   प्रद्द्त्त " वरदान /उपहार मिल गया हो .और लोगो ने खेल खेलना शुरू कर दिया .वैमनस्य और आपसी असहिष्णुता  का खेल -बन्दर के हाथ में उस्तरा मिलेगा तो वह ऐसा ही तो कुछ करेगा ! 

क्या ब्लोगवाणी टीम को यह विकल्प बंद कर देना चाहिए ? मगर कब तक ? कब यह ब्लॉगजगत परिपक्व होगा ? होगा भी या नहीं  ? आईये विचारें और ब्लोगवाणी टीम को भी एक पुनर्विचार का अवसर दें !

और तब तक हे भाई साहब ..अरे अरे आप से ही कह रहा हूँ -उधर  कहाँ देख रहे हैं ,हाँ हाँ आपसे ही -लगाओ न नापसंदगी पर एक चटका ...मगर इस बार   जरा प्यार से भाई  जान -हाँ नहीं तो (हाँ नहीं तो-शब्द -भाव सौजन्य स्वप्न मंजूषा शैल ) .

सोमवार, 15 मार्च 2010

गाली गलौज की भाषा और ब्लागजगत

अभी उसी दिन मुझे बताया गया कि मैं बहस मुबाहिसों के दौरान अधिकतर अपशब्दों /अब्यूजिव मतलब गाली गलौज की भाषा का प्रयोग करता हूँ और वह भी खास तौर पर नारियों के लिए .यह मेरे लिए असहज हो उठने की स्थिति थी मगर उससे कहीं बढ़कर आत्मान्वेषण का एक सुनहरा मौका भी सहज ही उपलब्ध हो गया था -कबीर वाणी ऐसे ही मौकों के लिए है -कबिरा निंदक राखिये आँगन कुटी छवाय ......मैंने कुछ तो आत्मान्वेषण किया और कुछ सिंहावलोकन (सिंह आदत के अनुसार पीछे मुड़ मुड़ कर देखता है इसलिए शब्द बना सिंहावलोकन )  . नैसर्गिक न्याय का तकाजा है कि किसी को भी अपना पक्ष रखने का मौका जरूर  दिया जाना चाहिए .इसी भावना से मैंने आरोपकर्ताओं से उन स्पेसफिक दृष्टान्तों की मांग की जिसमे उन्हें ऐसी प्रतीति हुई कि मैंने कथित अपशब्द और गाली गलौज की भाषा का इस्तेमाल किया है तो उसका उत्तर अभी तक नहीं दिया गया! मुझे सामाजिक जीवन में होशोहवाश के साथ चालीस वर्ष और एक सरकारी मुलाजिम के तौर पर छब्बीस वर्ष के खट्टे मीठे अनुभव होने को आये .मैंने देखा है कि आम भारतीयों की एक आदत बिना दृष्टांत के आरोप लगाने की भी होती है -ऐसे कई मामलों में जांच पड़ताल के बाद कुछ नहीं मिलता और समय संसाधन की जो बर्बादी होती है सो अलग -आरोप प्रत्यारोप भी हमारे राष्ट्रीय चरित्र में बहुत गहरे घुसा हुआ है और इसके मनोविश्लेषण पर रोचक  तथ्य प्रकाश  में आ सकते हैं -मसलन इस संकल्पना पर मनोविश्लेष्णात्मक अध्ययन आगे बढाया जा सकता है कि कहीं परिस्थितियों से उपजे गहरे नैराश्य और   जीवन से हार मान   चुके  लोगों के लिए अपने "वेजिटैटिंग" वजूद का अहसास कराते रहने में  आरोप  एक तिनके का सहारा तो नहीं है ? यानि  वे अपनी अस्मिता की मौजूदगी को  बस दर्शाते  रहना चाहते हों ? बहरहाल यह भी एक कयास है और इसके आधार पर कुछ निर्णयात्मक तौर पर नहीं कहा जा सकता !

लोकतंत्र में असहमति को बड़ा सम्मानित दर्जा मिला है मगर असहमति ठोस तथ्यों और बुनियादों पर आधारित होना चाहिए न कि केवल मन की भड़ास या अन्य किन्ही दीगर कारणों से हुई खुन्नस को  दूर करने का एक जरिया .कई गलत आरोपों या जनहित याचिकाओं पर अदालतों ने अपना समय जाया करने के लिए वादी  को कड़ी फटकार लगाई है -कुछ लोग जन्मजात निंदक/सायनिक  होते हैं -उन्हें दुनिया के सकारात्मक मामलों में भी कोई न कोई नुक्स नजर आ ही जाता है मगर शायद यह भी प्रकृति की व्यूह रचना है और जरूर इसका कोई सकारात्मक पहलू होगा -कबीर जैसे  संत ने इसलिए निंदक की भूमिका को स्वीकार किया!

भाषा का जहाँ तक सवाल है वह औपचारिक और अनौपचारिक संवादों के कितने ही वितानों ,विविध रूपों के  बीच अठखेलियाँ खेलती रहती  है .हम किसी गहरे दोस्त ,लगोटिया यार को दखते ही "अबे साले इतने दिनों तक कहाँ रहे " का उद्घोष कर सकते हैं और भी स्थानीय जुमलों /फिकरों (स्लैंग्स ) का इस्तेमाल कर सकते हैं -मगर औपचारिक अवसरों पर हम इन भावाभिव्यक्तियों  के प्रयोग से बचते हैं -अभी ब्लागजगत अपनी भाषा शैली को नियत करने में जुता/जुटा  हुआ है -आये दिन इसलिए ही तकरारें हो रही हैं नए नए शब्द भी गढ़े जा रहे हैं ,प्रचलन में आ रहे हैं और उतनी ही तेजी से प्रचलन से बाहर भी हो रहे हैं .मैं मानता हूँ कि बचपन में गाँव के लालन पालन के कारण मेरी भाषा में कुछ भदेसपन हो सकता है -कुछ गवयीपन हो सकता है कुछ ग्रामीण स्लैंग हो सकते हैं मगर मैं किसी के लिए गाली गलौज की  भाषा का प्रयोग करता हूँ यह जानकर मुझे हैरत हुई है .कई बार शब्दों के प्रयोग परिप्रेक्ष्य से अपरिचित होने पर भी गलतफहमियां हो सकती हैं .मैं अगर यह कहकर अपना स्व-औचित्य भी सिद्ध कर रहा हूँ तो केवल इसलिए कि मुझे अभी तक यह पुख्ता प्रमाण नहीं दिए गए हैं कि मैंने कब कहाँ और किसके लिए अब्यूजिव भाषा का इस्तेमाल किया है .

वैसे भी भाव सर्वोपरि है -भाषा तो बस भावों की चेरी है -यह कुछ रानी और चेरी की जुगलबंदी का मामला है. अब भाषा कहीं भाव की बराबरी कर पायेगी ? कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली ? हम भावों पर ध्यान दें तो कई बार शब्दों के अनायास घावों से बच सकते हैं .आज इस पोस्ट के माध्यम से मन  की एक फाँस निकालने की कोशिश  की है -कभी कभी कुछ बातें प्रत्यक्षतः सुभाषित होकर भी मन को डंक की तरह बेध जाती हैं और फिर बिना  कुछ कहे चैन नहीं पड़ता ...आज की रात कुछ चैन से सो पाउँगा ....आप सभी को भी शुभरात्रि !
१५.३.१० ,९ बजे रात्रि

रविवार, 14 मार्च 2010

टिप्पणी प्रसंग -पंचों का फैसला

जी हाँ ,टिप्पणी प्रसंग पर पंचो का फैसला आ गया है.जिसका सार संक्षेप और संकलन जरूरी लगता है . किसी भी ब्लॉग-पोस्ट पर की गयी टिप्पणियाँ उस ब्लॉग मालिक के हवाले हो जाती हैं और वह उनके साथ दुर्भाग्यवश "मार दिया जाय या छोड़ दिया जाय'' की ही तर्ज पर  छाप दिया जाय या छोड़ दिया(रिजेक्ट) जाय जैसा जो भी सलूक करना चाहे स्वविवेकानुसार कर सकता है -आशय यह कि किसी भी ब्लॉग पोस्ट पर टिप्पणी करने के बाद टिप्पणीकर्ता का न तो कोई अधिकार रह जाता है और न ही कोई भूमिका ,टिप्पणी करने के बाद टिप्पणी पर उसका कोई बस नहीं है .दिक्कत उन ब्लागों पर है जहां माडरेशन लगा है -आपने  टिप्पणी की और बाद में ब्लॉग स्वामी इनकार कर दे कि पकी टिप्पणी तो मिली ही नहीं थी .....  तो आप बस अपना सा मुंह लेकर रह जायेगें (प्रशान्त प्रियदर्शी ठीक कहते हैं कि अब नैतिकता की बात तो उठाना ही नहीं चाहिए ) ...और चूंकि उसे आपने  सेव /सुरक्षित नहीं किया है तो फिर वह विचार ,शब्द चयन -संयोजन और वाक्य रचना गयी काम से! याददाश्त  कभी भी अच्छी साथी नहीं होती ऐन  वक्त पर साथ छोड़  सकती है - ऐसे ही स्थिति से विगत दिनों मैं गुजरा जब सबसे पहले एक ब्लॉग पर मेरे विचार से  सटीक टिप्पणी करने के बाद भी वह नहीं छापी गयी क्योकि वह ब्लॉग ओनर के पोस्ट की प्रस्तुति  के प्रतिकूल थी -लोग यह तो बहुत कहते हैं कि असहमति की भी सहमति होनी  चाहिए -मगर यह  ज्यादतर लोगों के लिए एक रेटरिक ,एक लफ्फाजी के सिवा कुछ नहीं है -मैंने सम्बन्धित ब्लोगर को मेल करके पूरी शिष्टता से अपनी अप्रसन्नता दर्ज की कि आखिर मेरी टिप्पणी को इतने लम्बे समय तक माडरेशन में क्यूं रखा जा रहा है तो मुझे यह मौलिक सुझाव् दे दिया गया कि मैं चाहूं तो अपने ब्लॉग पर एक पूरी पोस्ट लिख कर उनके ब्लॉग की अंतर्वस्तु का विरोध कर सकता हूँ .लीजिये जनाब अब आपका ब्लॉगर की पोस्ट को ध्यान से पढना (सौजन्यता  को तो मारिये गोली ),फिर   ध्यान केन्द्रित करके टिप्पणी लिखना ,विचार ,शब्द चयन ,वाक्य विन्यास सब गया काम से ....अब भई गजल के शेर कहाँ रोज रोज होते हैं ? 

एक समर्पित टिप्पणीकार के लिए उसके अल्फाज और भाव किसी भी तरह कमतर नहीं होते -टिप्पणी करने के पीछे के श्रम ,समय और समर्पण  को भी समझना चाहिए!और ब्लॉग स्वामी का यह शिष्टाचार ,औदार्य तो होना ही चाहिए कि वह टिप्पणीकर्ता को यदि उसकी टिप्पणी प्रकाशित नहीं कर पा रहा है तो उसे एक विनम्र औपचारिक जवाब के साथ वापस कर दे -जैसे कि पुराने ज़माने के संपादकों द्वारा अस्वीकृत रचनाएँ कतिपय औपचारिक रिजेक्शन स्लिप के साथ वापस  कर दी जाती थीं .यह सौजन्यता अपने टिप्पणीकार के प्रति आपकी सदाशयता भी तो इंगित करेगी.देखिये अंतर्जाल युग के कितने ही  सुनहले नियम कायदे अभी भी बनने शेष हैं या तो अनंतिम दौर में हैं -आईये हम उन्हें अंतिम रूप देने में पहल करें! हिन्दी ब्लॉग जगत अब सक्षम है कि कुछ सुनहले नियमों को अपनाए और आने वालों के लिए भी एक आदर्श आचार संहिता को मूर्तमान करे -हम टिप्पणी के मामले में आईये एक ऐसी ही शुरुआत करें .

टिप्पणियाँ चिट्ठाकार को भी नियमित और मर्यादित करने/रखने /रहने  की क्षमता रखती हैं -कहीं  अंकुश  बनती हैं तो कहीं सचेतक भी लगती हैं .नहीं तो कई चिट्ठाकार निरंकुश ही न होते  जायं? मेरी दो टिप्पणियाँ ब्लॉग मालिको पर इतनी भारी पड़ गयीं कि उन्हें अपनी पूरी पोस्ट ही डिलीट करनी पड़ गयी -अब पुनः संदर्भ देकर मैं कोई वितंडावाद नहीं शुरू करना चाहता मगर मुझे इस बात का अफ़सोस जरूर हैं  कि मेरे पास अब वे ऐतिहासिक  टिप्पणियाँ(बात रखने के लिए निर्लज्ज आत्मप्रशंसा ही सही )  सुरक्षित नहीं हैं,याद कर भी उन्हें वापस लाना मुश्किल हैं - गेहूं के साथ घुन बन पिस गयीं वें ! मगर हाँ इसी विमर्श से उन्मुक्त जी द्वारा यह एक साईट सुझा दी गयी है जिसे मैंने अपना भी लिया है और जोरदार सिफारिश है कि जो भी अपनी टिप्पणियों पर जान  छिडकते हैं उन्हें इस साईट पर जाकर पंजीकरण करा लेना चाहिए! समीर भाई तो संत हैं! नेकी कर दरिया में डाल और परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर वाली परम्परा के सचमुच !

अब आईये पंचों के कुछ प्रमुख अंगुलि निर्देशों की एक पुनश्चर्या कर ली जाय ,विस्तार से देखने के लिए विगत पोस्ट की टिप्पणियों का  कृपया संदर्भ लें -वैसे पूरी बतकही ही संदर्भणीय है -वादे वादे जायते तत्वबोधः की ही परम्परा में ....

बेचैन   आत्मा ने जैसे मेरे मुंह की बात  छीन ली हो - 
"टिप्पणियाँ अमूल्य होती हैं. किसी कहानी, कविता, लेख या दर्शन को पढ़कर तत्क्षण उठाने वाले विचार हैं जिसे पढ़ने वाले ने उसी वक्त अभिव्यक्ति दी है..वह दूसरे दिन, दूसरे मूड में पढ़े, तो जरूरी नहीं कि वही लिख पायेगा जो उसने पहले लिखा था. इसलिए इसे मिटाना नहीं चाहिए . हाँ, लेखक को लगे कि उसने गलत लिखा है तो वह स्वयं मिटा सकता है."

"मोडरेशन की दशा में आप ब्लॉग पोस्ट के कंटेंट पर अपने विचार रखते हुए उसे लिंक कर अपने ब्लॉग पर अपनी आपतियां रखें वह अधिक उचित होगा."

"कई ब्‍लाग पर यह लिखा होता है कि आफ्‍टर अप्रूवल आपकी टिप्‍पणी पोस्‍ट की जाएगी। तब मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति में वो टिप्‍पणी उस टिप्‍पणीकार के पास वापस भेज देनी चाहिए ना कि उसे डिलिट कर देना चाहिए।"
"....हालांकि हटाई गई टिप्पणी को उसी समयकाल में पुन: रोपे जाने का तकनीकी इलाज़ है, किन्तु सोचता हूँ कहीं यह गलत तो नहीं!"

'Be careful before falling for someone!'(किसी पर मर मिटने के पहले सावधानी बरतिए!अर्थात ....ऐसे ही मत जान /टिप्पणियाँ छिड़कते  रहिये चहुँ ओर )

"अगर टिप्पणीकार को लगता है कि उसका लिखा इतना ही महत्वपूर्ण है तो वह भी इसे सेव करके रख सकता है.. अगर टिपण्णी लिखने वाले ही उसे लेकर इतना परवाह नहीं कर रहे हैं तो पोस्ट लेखक भला क्यों करे?"

"टिप्पणियों की प्रति रखने का आइडिया जोरदार है। इसपर विचार किया जा सकता है।"

"टिप्पणियाँ साहित्यिक सृजन है । उन्हें सहेज कर रखना चाहिये । कोई विधि हो जिससे आपके द्वारा की गयी टिप्पणियाँ एक जगह एकत्रित रह सकें।"

"...मगर यहां मैं इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखता कि टिप्पणियां सिर्फ़ हमारी होती हैं ....मेरे ख्याल से तो यदि एक बार हमने उसे प्रकाशित कर दिया तो फ़िर गया वो मालिकाना हक ...."

"अरे भाई इसपर क्या कहें , ये तो ब्लॉग स्वामी की मर्जी !
पर अगर कोई इसकदर दिल से लिखा हो , तो दुःख होगा ही "

"-बस, टिप्पणी कर, गंगा में डाल- और भूल जाओ. "

१- जिस भी ब्लॉग में टिप्पणी का विकल्प है, ब्लॉग मालिक उसमें पोस्ट लगाने व टिप्पणी पाने के बाद उसे न हटाये, यदि ऐसा करता है तो अगली पोस्ट में कारण जानने का हक तो हो ही पाठकों को।
२- दूसरा अहम मुद्दा है पोस्ट को एडिट करने का, अगर आप बारीकी से देखें तो कुछ लोग क्या कर रहे हैं कि पोस्ट लिखी एक मुद्दे पर...स्टैंड लिया...और फिर कुछ समय बाद उसे इतना एडिट कर दिया कि नया मतलब पहले का बिल्कुल उलटा हो गया...फंस गया न बेचारा पाठक टिप्पणीकार!...ऐसा नहीं होना चाहिये!
३- और उन लोगों का क्या किया जाये जो दूसरों की पोस्टों पर पहले तो टिप्पणी देते हैं...फिर कुछ समय बाद उसे वहाँ से हटा देते हैं... क्योंकि या तो मामला सुलझा लिया बात करके या उन्हें लगता है कि दी गई टिप्पणी से उनकी इमेज को नुकसान पहुंच सकता है।... ऐसा भी कतई न हो!

१ - टिप्पणी का स्वामी, टिप्पणी करने वाल होता है। यह उसी का कॉपीराइट है।
२ - किसी चिट्ठी में कौन सी टिप्पणी प्रकाशित हो यह वह चिट्ठी रहे या मिटा दी जाय यह अधिकार चिट्टा स्वामी का ही है। इस पर कोई अन्य आपत्ति नहीं कर सकता है। हां यह जरूर है कि वह उस विषय पर अपने चिट्टे पर लिख दे।
.....टिप्पणी का स्वामी तो टिप्पणीकर्ता है पर यदि किसी चिट्ठी पर कोई टिप्पणी प्रकाशित हो जाती है तो उस टिप्पणी का दायित्व चिट्ठा मालिक का भी है। यानि कि, यदि कोई किसी चिट्ठी पर टिप्पणी द्वारा किसी की निन्दा करता है और वह टिप्पणी किसी के चिट्ठे पर प्रकाशित हो जाती है। तो निन्दा का दायित्व न केवल उस टिप्पणी कर्ता का है पर उस चिट्टा स्वामी का भी है।

"बॉई दॅ वे, मुझको इसे पोस्ट-लेखक का भूल सुधार मान लेने में कोई बुराई नहीं दिखती । ....
पर.. उन पोस्ट और ब्लॉगमालिकों का क्या, जो कईयों की टिप्पणी गड़प कर जाते हैं, डकार भी नहीं लेते ।"

"जब पोस्ट ही नहीं रही..तो कमेन्ट कि क्या बिसात."

"उन्मुक्त जी की टिप्पणी सबसे सटीक लगी और आपका ये कहना कि "टिप्पणीकार की मानस पुत्र और पुत्रियाँ है टिप्पणियाँ"...
 अन्य जिन सभी महानुभावों ने इस चर्चा /टिप्पणी विमर्श में भाग लिया मैं उन सभी का ह्रदय से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ .









शुक्रवार, 12 मार्च 2010

वापस कीजिये प्लीज मेरी टिप्पणियाँ !

अब वे टिप्पणियाँ कैसे लौटेंगी जो उन डीलीटेड पोस्ट्स के साथ दफ़न हो गईं ? मैंने और आप सब ने भी  अगर ये दुनिया है तो कैसी दुनिया है-काव्य मंजूषा और स्प्लिट सेक्स चिकेन -स्वप्न दर्शी पर कल   टिप्पणियाँ की थीं मगर आज ये दोनों पोस्ट ब्लॉग मालिकों /मालिकाओं  द्वारा हटा  दी गयी हैं -मुझे उन पर की गयीं अपनी टिप्पणियों के दफ़न हो जाने का बहुत दुःख है -कृपया इसे कोई व्यक्तिगत मुद्दा न मानकर इन बिन्दुओं पर विचार करना चाहें-

हो सकता है कि किसी ब्लॉग ओनर ने अन्यान्य कारणों से अपनी पोस्ट डिलीट कर दी हो -यद्यपि यह गतिविधि  कई प्रश्न उठाती है -हो सकता है प्रश्नगत पोस्ट बहुत सुविचारित न रही हो ,आई हुई टिप्पणियों से उसकी कमियाँ उजागर हो गयी हो ,कोई तथ्यात्मक भूल हो गयी हो ,जवाबदेही की स्थिति बन गयी हो और फिर अगर पोस्ट हटानी ही है तो फिर लिखी ही क्यूं जाय ? मगर यह जवाब देही और शिष्टाचार का तकाजा तो बनता ही है ब्लाग ओनर का कि वह टिप्पणीकारों को सूचित करे कि  कतिपय अपरिहार्य कारणों (हम यह यह पूंछ पछोर नहीं करेगें भाई -आखिर शिष्टाचार भी कोई चीज है ) से मेरी अमुक पोस्ट हटाई जा रही है और आप चाहें तो हम आपकी टिप्पणियाँ वापस कर दें!ऐसा तो हुआ नहीं बस पोस्टें डिलीट कर दी गयीं और उन्ही के साथ टिप्पणियाँ भी दफ़न हो गयीं! शिष्ट दुनिया में हम रहते हैं तो इतनी जिम्मेदारी हमारी बनती है कि पोस्ट डिलीट करने जैसे  अतिवादी कदम उठाने पर भी हम  टिप्पणियों को बिना टिप्पणीकारों से पूंछे दफ़न न करें!अपनी पोस्ट को चूल्हे भाड़ में डालें या  डिलीटेड पोस्ट पर मर्सिया करें मगर टिप्पणियाँ किसी और की अमानत  हैं और अमानत में खयानत यहाँ ब्लॉगजगत में अभी तक कोई कानूनी  अपराध(साईबर क्राईम ) भले न हो नैतिक अपराध तो है ही !

टिप्पणियाँ भी एक सृजनकर्म  है -अगर मुख्य सृजन नहीं तो कोई गौंड भी नहीं -ब्लॉगजगत में चर्चा,प्रतिचर्चा और परिचर्चा की बहुत ही महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं टिप्पणियाँ -उनकी उपेक्षा कतई उचित नहीं हैं और नहीं उन्हें घूर घाट के किनारे लगाने की प्रवृत्ति होनी चाहिए .वे किसी भी तरह इतनी उपेक्षनीय नहीं हैं -टिप्पणीकार की  मानस पुत्र और पुत्रियाँ है टिप्पणियाँ! उनकी इतनी बेकद्री मुझे तो कतई रास नहीं आई!स्वप्नदर्शी ने नर नारी में लैंगिक  समानता दर्शाने की सक्रियता और उत्साह  में पक्षियों -मुर्गों में लैंगिक निर्ध्रारण के एक उपर्युक्त वैज्ञानिक शोध को संदर्भित किया और जब मैंने टिप्पणी में यह बताया कि स्तन पोषी प्राणियों में जिसमें मनुष्य भी है ,लैंगिक निर्ध्रारण चिड़ियों से भिन्न है तो वह टिप्पणी तो छोडिये पूरी पोस्ट ही डिलीट कर दी गयी! क्या एक वैज्ञानिक से यही अपेक्षा है कि वह सार्थक चर्चा करने के बजाय इस तरह के थर्ड ग्रेड पर उतर आये?पूरी पोस्ट ही डिलीट कर देना अपनी इमेज बचाए रखने का  'क्राईसिस कंट्रोल'  तो नहीं है ? हम विदेशों से अप संस्कृति तो सीख रहे हैं मगर वहां के कुछ सार्थक बातें क्यूं नहीं सीखते ? या हम अपने हिन्दी जगत  और गोबर पट्टी को हमेशा ऐसे ही डील करने के आदी हो गए हैं? वहां कोई भी वैज्ञानिक ब्लॉगर अपनी गलती मानने में ज़रा भी नहीं हिचकता ओर पूरी सहिष्णुता से टिप्पणी पर चर्चा करता .आभारी भी होता .मगर यहाँ तो हमें हमारी टिप्पणियाँ बिना हमारी अनुमति के डिलीट कर हमें अपने  गोबर पट्टी के होने की औकात बता दी गयी है!

इस पोस्ट के माध्यम से जहाँ मैं गला घोट कर अकाल ही दफ़न की गयी अपने टिप्पणियाँ सम्बन्धित ब्लॉग मालिकों से वापस मांगने -उन्हें पुनर्जीवित करने की मांग करता हूँ वहीं यह मुद्दा भी आप सुधी  जनों के पास विचार विमर्श के लिए छोड़ता हूँ -आगे से मैं महत्वपूर्ण -नाईस टाईप को छोड़कर, टिप्पणियों की  एक प्रति सुरक्षित रखने का भी ख़याल रखूंगा !

क्या मुझे मेरी टिप्पणियाँ वापस मिलेगीं? वापस कीजिये प्लीज मेरी टिप्पणियाँ !



मंगलवार, 9 मार्च 2010

फागुन के दिन चार बीत गए रे भैया

फागुन बीत गया -मनुष्य की चिरन्तन श्रृंगारिकता को उत्प्रेरित और आलोडित करके चला गया .अब अगले वर्ष फिर लौटेगा! कितना उत्सव प्रिय है मनुष्य आज भी ,मगर यह बात लोक जीवन में ही आप ज्यादा अनुभव कर सकते हैं.  बढ़ता  नागरीकरण मनुष्य मन को निरंतर आत्मकेंद्रित ,स्वार्थी और व्यक्तित्वहीन ही बनाता गया है -नागरीकरण की प्रेत छाया से गाँव भी बदलते गए हैं मगर वहां आज भी सामाजिक जीवन की जीवंतता,साझे सरोकार उत्सवों के आयोजन में देखने और खूब देखने को मिलते हैं -ऐसे ही एक पारम्परिक लोकोत्सव से कल लौट आया मगर मन  अभी भी उन्ही अमराईयों में कहीं बेसुध सा पड़ा है -पीड़ित सा क्लांत सा -"अमवाँ बौर गयल हो रामा ,,,पिया नहीं आये ..." "सेजिया पे टिकुली हेराने हो रामा" की गायन  अनुगूंजे  अभी  भी मन को व्यथित किये हुए है -बार बार लगता है यही वियोग ही श्रृंगार का मूल तत्व है .जो  इस वियोग की चेतना  से संपृक्त नहीं हुआ समझो वह श्रृंगारिकता के सहज बोध से ही प्रवंचित रह गया .लोग कहते हैं यह श्रृंगार उत्सव तो मध्यकालीन विलासिता की ही देंन  हैं -स्मृति शेष है .मुझे दुःख होता है कि लोकजीवन से कटे ये लोग जीवन की जीवन्तता से ही मानो वंचित हो गए हैं -जीवन की मुख्य धारा से ही मानो अलग हो गए हों .

क्या बिहारी और पद्माकर रचित विपुल  श्रृंगार साहित्य निःशेष हुआ ? निरर्थक हुआ ? महानुभावो अगले वर्ष किसी भी होली के लोकोत्सव में भाग लेकर देखिएगा -हाँ भले ही आप अप्रस्तुत से हो जायं मगर आप एक लाईफ टाईम अनुभव तो करके ही लौटेंगे  जैसा कि अभी अभय भाई बनारस से करके लौटे हैं -बताता चलूँ आज भी बनारस और इलाहाबाद कम से कम ऐसे 'आधुनिक ' शहर हैं जो प्राचीनता के कितने ही स्पंदनो को समाहित किये हुए हैं .कन्टेम्पररी क्लासिक -जैसे कुछ चिर नवीन के साथ  चिर प्राचीन भी! आज की कविता प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की पगडंडियों पे चलकर  लोकमानस की मुख्यधारा से ही मानो  अलग थलग पड़ती गयी है -बहुत कुछ बनावटी और मेक बिलीवों से भरी  हुई -आज रीतिकालीन कवियों की कवितायें बृहत्तर मानव जीवन को जीवन्तता दे रही हैं तो कैसे मान  लिया जाय कि वे अप्रासंगिक हुईं -अब रही बात अश्लीलता और श्लीलता  की -आज की नगरी पीढी की तो श्लीलता भी कुंठित होती लग रही है और अश्लीलता भी -उन्हें तो यह भी शायद ठीक से नहीं मालूम की असली अश्लीलता होती क्या है और इस नासमझी में वे उसे अंजाम दे देते हैं -आज भी गाँव में अश्लीलता -श्लीलता का पाठ समाज समझाता है ऐसे उत्सवों के अवसर पर और प्रकारान्तर  से उनकी मनाही भी करता है सरेआम और सकारात्मकता से ...

ये उत्सव सौन्दर्यबोध के उद्दीपनो के सामूहिक कारखाने भी हैं -जीवन से सौन्दर्यबोध गया तो बचा भी क्या -ठेंठ और रूढ़ सा जीवन -आज के मशीनी  जीवन में तो सौन्दर्यबोध के सतत उत्प्रेरण की  और भी आवश्यकता है -बहरहाल इतनी बड़ी प्रस्तावना मैंने आपको एक गायक -श्री नागेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी ,हिन्दी प्राध्यापक ,डॉ भगवानदास इंटर कालेज बघैला जौनपुर द्वारा सुनाये पद्माकर के इस कवित्त के अस्वादन के आमंत्रण के लिए दे डाली है -मैं इसे सुनवा भी सकता हूँ मगर उनके गायन  के दौरान व्यवधान हैं इसलिए फिलहाल कविता से ही संतोष कीजिये और खुद अर्थ समझिये . ज्ञानी जन तो समझ ही जायेगें और आस पड़ोस के भोले लोगों को समझा भी देंगें -फिर भी कहीं कोई संवादहीनता हो तो मुझसे संवाद कर सकते हैं -परमारथ के कारने सधुन धरा शरीर ! 
ऊंचे उसासन सो कहत पड़ोसन से 
मेरे हिय उठत कठोर दुई पाके हैं 
याही सकोचन से कछु ना सोहाय आली 
ऐसो कठोर ये पिरात नहीं पाके हैं 
कहैं पद्माकार न घबराहू ये बाला 
ए रतिजाल वाल पोषक सुधा के हैं 
जाके उर होत हैं पिरात नाहीं ताके उर 
जो इन्हें ताके पिरात उर ताके हैं 
हाय बीत गए ये  दिन चार फागुन के ....

शनिवार, 6 मार्च 2010

इस बार बच गया है अभिमन्यु मगर......

मुझे आज लिखना था साईब्लाग पर ,नर नारी समानता पर अगली पोस्ट मगर मन  इतना व्यथित है कि आज कोई भी सार्थक लेखन नहीं हो सकेगा -तो यह निरर्थक ही सही! मगर खुशी भी  इस बात की है कि इस बार बच गया अभिमन्यु ,वह मरा नहीं है -किस तरह से एक अभिमन्यु   पर कल कितनी ही दुखी -दमित कामनाएं,ब्रिहन्न्लायें और शिखन्डी तथा एक शकुनी मामा/जयद्रथ   टूट पड़े और  जितना कुछ संभव था नोच खसोट कर उसे क्षत विक्षत किया गया .भारतीय संस्कृति का भाष्य दर भाष्य होता रहा! क्या गलत कह दिया मिथिलेश ने कि महिलायें सार्वजनिक स्थलों पर सलीके से कपडे पहना करें -और यह भारतीय महिलाओं के लिए ही क्यों पूरी दुनिया की महिलाओं को लेकर क्यूं  नहीं  एक  उचित हिदायत  है ? कपडे तो सुरुचिपूर्ण होने ही चाहिए! क्यों होने चाहिए कान खोल कर सुन लीजिये, मैं बताता हूँ - कुछ पश्चिमी देशों में अनावृत्त वक्ष की वेटर ग्राहकों को सर्व करती हैं -मगर बाकायदा इसके लिए उन्हें प्रशिक्षित होना पड़ता है कि कि वे अपने   वक्ष अग्रकों को पुरुष ग्राहकों से कैसे बचाती रहें -क्योकि प्रायः पुरुष ग्राहक अचानक और सहज ही उन्हें छूने   के लिए अपने हाथ  बढा देते हैं -इसलिए कि उनके वक्ष अग्रक तीव्र नैसर्गिक उद्दीपन का प्रभाव डालते हैं -व्यवहार विज्ञानियों के शब्दों में उनके वक्ष अग्रक तीव्र "sign stimulus "  हैं जो "stimulas bound response   " के लिए पर्याप्त उद्दीपन देते हैं .

यह  तथ्य है कि नारी के खुले दैहिक क्षेत्र ऐसे तीव्र उद्दीपन उत्पन्न करते हैं -नगरीय मनुष्य इनके साथ रहता हुआ इनके प्रति काफी सीमा  तक असंवेदित होता  जाता है मगर वह भी अनदेखे उघारों पर उद्वेलित हो सकता है .किशोर और युवा तो सहज ही इनके प्रति रिएक्ट करते हैं -तो इसमें कहीं कोई अनुचित बात नहीं है कि पहनावे में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए -अब नारीवादी इन बातों पर हो हल्ला मचाएं तो मचाते रहें -जो वैज्ञानिक तथ्य है वह झुठलाया नहीं जा सकता! जब ड्रेस कोड की बाते होती हैं तो इनके पीछे यही भाव होता है -किसी भी लोक तांत्रिक व्यवस्था में पहनावे पर कोई रोक नहीं है -जो भी पहनना हो पहने -हाँ अपनी रिस्क पर -वेलफेयर स्टेट आपको बचाने हर जगह मौजूद नहीं है!

मुझे पर- मुखापेक्षिता नहीं आती -अपने बड़े सीनियरों से भी लड जाता हूँ -दुरभिसंधियां नहीं बनाता ,बेनामी टिप्पणियां नहीं  करता और इसकी कीमते भी चुकाता रहता हूँ ,बड़ी कीमतें भी -पर जैसा हूँ हूँ मुझे खुद से कभी कोई गिला शिकवा नहीं रहा -मुझे फख्र है कि अपने ऊपर कि मैं किसी भीष्म को मारने में शिखंडी नहीं बनता और न ही अकेले अभिमन्यु के वध के लिए किसी जयद्रथ की भूमिका में रहता हूँ -अब जिन्हें इन बातों पर जितनी लफ्फाजियां सूझे वे मुखर हो उठें जिसे रिझाना चाहें रिझाएँ और शिष्टता का ढोंग करना चाहें करें -मुझे मालूम है कि हमाम में कौन कौन नंगे हैं!

इस बार बच गया है अभिमन्यु मगर जयद्रथ बचेगा या नहीं -देखा जाना शेष है .....

मंगलवार, 2 मार्च 2010

गाँव में होली मनाई और खींच लाये कुछ चित्र !....

 माता जी के निर्देशन में गुंझिया निर्माण  गृह उद्योग
हर बार की तरह इस बार की होली मैंने सपरिवार गांवं में मनाई -यह बात दीगर है कि पिछले बार की तरह इस बार भी छुट्टी बीतने से पहले ही वापस मुख्यालय    यानि  बनारस बुला  लिया गया -मगर खैरियत है .हाँ, कुछ चित्र हैं मेरे साथ जिन्हें मैं आपके साथ साझा कर रहा  हूँ -गांवं की होली भी कई चरणों में होती है -होलिका दहन से रंग खेलने ,अबीर गुलाल लगाने से लेकर भांग की घोटाई और ठंडई की पिलाई तक और बीच बीच में कुछ मनसायन -गायन वादन भी!मुझे याद है वसंत पंचमी के दिन गाँव के छोर पर स्थापित किये  जाने वाले रेंड (अरंड ) के पेड़ पर जहां रंग खेलने के दिन के पूर्व की रात में होलिका दहन होता है हम लोग खांचे -दौरे भर भर कर पत्तियाँ , खर पतवार बटोर बटोर कर लाते थे और एक भव्य होलिका दहन की तैयारी करते थे.....इस बार तो रात में हम जब बाल गोपालों और बड़े  बुजुर्गों के साथ वहां पहुंचे तो पूर्णिमा की रात होने के बावजूद भी वह स्थल ही  नहीं मिला जहां रेड का स्थापित होना बताया जा रहा था -बहरहाल एक स्थल को चिह्नित कर गाँव से पुआल, सरपत ,ईख की सूखी पत्तियाँ मंगाकर रखी गयी -होलिका दहन के लिए -बच्चों को मैंने अपने दिनों की याद दिला कर कोसा कि पुरुषों का पुरुषत्व भले ही ख़त्म होता जा रहा हो तुम लोगों का बचपना कहाँ चला गया है,पत्तियाँ ही बटोर कर रखते  -बहरहाल इस डांट फटकार का नतीजा शायद  अगले वर्ष देखने को मिले .
गुझिया और किसिम किसिम की  होली -खाद्य सामग्री -शहर में  सीखें ,गांवं में बनाएं

होलिका में आग लगाने के पहले कबीर बोलने की परम्परा है जिस  पर पहले लिख चुका हूँ (सिफारिश है ,समय हो तो जरूर पढ़ लें ).दरअसल होलिका  दहन के पूर्व  कबीर बोलने की  परम्परा ही गाँवों की वह सार्वजनिक यौन  उन्मुखीकरण / यौन विषयक  ओपेन शिक्षण -स्थल है जहाँ किशोरावस्था की देहरी पर बस पहुँच रहे बच्चों को यौनिकता की ओर इशारा कर  मानो जता  दिया जाता है कि मानव जीवन में यौनिकता का भी एक अहम् रोल है -और इसके प्रति अनावश्यक शील संकोच कुंठाओं को जन्म दे सकता  है! तो कबीर में गाँव के प्रमुख लोगों ,जोड़ों से जोड़ते हुए यौनिक उद्भावनाएँ गीतों के जरिये खुल्लम खुल्ला व्यक्त होती हैं -और गाँव के दलित तक को भी पूरी छूट  मिलती है कि वे गांवं के कथित संभ्रांत और उच्च वर्ग के लोगों के यौन जीवन में ताक झाँक कर मनचाही फंतासियाँ कह बोल सकें -प्रगटतः तो यह सब  "अश्लील" सा लगता है और हम आज भी कबीर  सुनने में  शील संकोच से गड से जाते हैं -निःशब्द हो उठते हैं मगर वहां उपस्थित बच्चों -किशोरों को देख अपना अतीत भी याद आ  जाता है कि किस तरह बड़े बूढों के  सामने ही सुने गए 'कबीरों' के चलते   अगले कुछ दिनों तक हम उनसे   नजरें चुराते फिरते थे-पर इस सार्वजनिक व्यवस्था के प्रति एक आभार बोध भी है कि हमें यौनिक विषयों की जुगुप्सा यहीं से प्राप्त हुई -और इसके चलते भी बहुत कुछ सहज सामान्य  सा रहा कालांतर के जीवन में -यहाँ उन 'अश्लील' उद्धरणों को तो नहीं दिया  जा सकता -यह तो "सुनतै बनत बतावत नाहीं "जैसा अनुभव ही है!  इस बार कबीर गाने वाले भी कोई ख़ास नहीं रहे -अपने जमाने के बिज्जल चमार की याद आई जो होलिका दहन के लिए ५०० मीटर  दूर पर स्थित अपने घर से निकलते ही कबीरा स र र र र र की तान छेड़ देते और बिना उनके आये होलिका   नहीं जलती थी ....हाँ होलिका के जल जाने के बाद सब कुछ सुस्वप्न /दुस्वप्न सा हो जाता था -बात आई गयी हो जाती थी ..फिर कोई किसी को कबीर नहीं  बोल सकता था ....मेरी भी इच्छा ब्लागजगत के कुछ ऐठू -तुनक मिजाज मगर प्यारे  से लोगों को कबीर बोलने की हो आई है मगर होलिका तो जल चुकी ..चलिए अगली बार .....हा हा ...

 एक घूमंतू गायक टोली 

दूसरे दिन  बच्चों के साथ हुडदंग भी किया -नतीजतन आज भी शरीर का पोर पोर दुःख रहा है .हमने गीत गायन की बैठकी में भी भाग लिया -मनोज के निर्देशन में होली -चैता  गायकी का एक जज्बा यहाँ  देख सकते हैं .ठंडई पीया और थोडा भांग भी खाई -नशा नहीं हुआ -कौन जाने भांग ही  नकली  न रही हो!... और  फिर बैतलवा शाख पर यानि बनारस  वापस आ चुका हूँ!
होलिका जलने के पहले और नीचे जलने पर .....

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