रविवार, 25 जनवरी 2009

सी हाऊ हिन्दी ब्लाग्स हैव अचीव्ड ए स्लम डाग सक्सेस !

सोचता हूँ लगे हाथ स्लमड़ाग शब्द की मीमांसा भी कर ली जाय .समीक्षकों की दरियादिली ऐसी है कि इसे साढे चार स्टार से नवाजा जा चुका है और आस्कर की कई श्रेणियों के लिए यह नामित हो चुकी है .कोई आश्चर्य नही कि इसे कोई /कई आस्कर मिल ही न जायं ! तो आईये इसके नाम को लेकर थोड़ा पूर्वाभ्यास कर ही लिया जाय ।
अभी तक यह शब्द किसी भी डिक्शनरी में नही है .विदेशी भाष्यकार बोल रहे हैं यह शब्द दो शब्दों के योग से बना है -स्लम और अंडरड़ाग (underdog )! स्लम बोले तो झुग्गी झोपडी ! और अंडरड़ाग शब्द को आईये आक्सफोर्ड एडवान्स्ड डिक्सनरी में पहले देख लेते हैं -a person ,team ,etc thought to be in weaker position ,and therefore not likely to win a competition ,fight ,etc-usage example-Before the match we were definitely the uderdogs. तो मतलब यह कि झुगी झोपडी का सीकिया पहलवान ! अब इस शब्द को गढ़ने के पीछे असली मंशा तो इसके निदेशक डैनी बोयल ही जानते होंगे .पर इसके पक्षधर स्लम + अंडरड़ाग= स्लमड़ाग का ही आलाप ले रहे हैं !
मगर इस शब्द का एक सहज बोध तो यही है कि झुगी झोपडी का कुत्ता ! जैसे कि धोबी का कुता ( न घर का न घाट का ) या गली का कुत्ता ! तो अब इन कहावतों में अब एक इजाफा होकर कुत्ता कहावत का नया संस्करण आ गया है -अरे यार यह तो झुगी /झोपडी का कुत्ता निकला ! यह कुत्ता कोई घर का या घाट का बेकार कुत्ता नही है यह झुगी झोपडी का करोड़पति हो जाने की हैसियत रखने वाला कुत्ता है -यह किसी भी 'अपनी गली में शेर बन जाने वाले ' कुत्ते से कम नही अधिक ही हैयह ! इसे अब हलके में मत लीजिये ! इसको लेकर अब सावधान हो जाइए .कुत्तों के दिन भी अब फिर रहे हैं ! देखो देखो देखो वह स्लमड़ाग भी करोड़पति बन गया बे ! हे ब्रितानी भाईयों .हे अमेरिकन भाईयों अरे देखो कैसा घोर कलियुग गया कि अब साले स्लमडाग भी मिलियेनर बन रहे हैं ! अब एक नई कहावत यह भी हो सकती है -स्लमडाग सक्सेस ! सी हाऊ हिन्दी ब्लाग्स हैव अचीव्ड ए स्लम डाग सक्सेस !
डैनी बोयल ने मित्रों, एक तीर से कई शिकार कर लिया है -अपनी नस्लभेदी मानसिकता को बरकरार रखते हुए भारतीय परिवेश की गन्दगी को हमें तो दिखा ही दिया -पश्चिमी दुनिया को उसे बेंच दिया और पुरस्कारों की लाईन में भी लग लिए ! यह है एक टिपिकल अंगरेजी मानसिकता जिसकी भोलेभाले भारतीय भला कहाँ थाह पा सकते हैं ।
स्लम + अंडरड़ाग= स्लमड़ाग के पक्षधरों को इसमे कोई व्यंगोक्ति ,कोई श्लेष (pun),कोई लाक्षणिकता(मेटाफर ) नजर नही आ रही है ! वे इसे अभी अभी ज्ञानदत्त जी द्वारा भी पिछले पोस्ट पर किए गए कमेन्ट में गढे गये नए शब्द -स्लमगाड जैसा पवित्र मान रहे हैं -ठीक वैसे ही जिस तरह मेरे विश्विद्यालयी दिनों में एक छात्रावासी मित्र अपने गाँव से आए दिन आने वाले लोगों को खीज से ग्राम्यदेवता कह कर बुलाता था ! यहाँ वह भाषा की व्यंजनात्मक शक्ति की आड़ ले अपनी खिसियाहट मिटाता था !
तो अब स्लमडाग डैनी बोयल के लिए अगर ग्राम्यदेवता की ही तर्ज पर बकौल ज्ञानदत्त जी स्लमगाड बन गया है तो किसी के लिए क्या आपत्ति हो सकती है ! उस अंग्रेज मानसिकता ने तो एक तीर से कई शिकार कर ही लिए हैं और भोले भाले भारतीय भला उसके मन की थाह कहाँ पा सकते हैं !

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

अभी देखी है स्लमडाग करोड़पति ! फ़िल्म अच्छी ,मकसद बुरा !

स्लमडाग करोड़पति -एक दृश्य ! ( साभार : exclaim.ca)
अभी अभी स्लमडाग करोड़पति देख कर आया हूँ -बेहतरीन फिल्मांकन ,कलात्मकता और व्यावसायिकता का महीन मिश्रण ! एक जबरदस्त समांतर फिल्म ! पर मकसद क्या ? भारत के अंधेरे को पश्चिम के उजाले में ले जा पैसा , शोहरत और पुरस्कार आदि बटोरना !
ऐसा नही है कि भारतीय फिल्मों /फिल्मकारों /निर्देशकों को मुम्बई की झुग्गी झोपडी की गंदगी ,जरायमपेशा ,अंडर वर्ल्ड से उसकी सांठगाठ की सुध नही आयी है -कई बेहतरीन फिल्में वहाँ के परिवेश पर बन चुकी हैं ! बल्कि बालीवुड का एक सितारा जैकी श्राफ तो "स्लमडाग " ही रहा और पहले ही करोड़पति बन चुका है .तो विषय कोई नया नही है और न ही नग्न यथार्थ को उघारती यह कोई नई प्रस्तुति है -पर हाँ यह नई फिल्म पटकथा और प्रस्तुतीकरण में जरूर प्रभावशाली बन पडी है .
यह फिल्म सुखान्त है और मानवीय संवेदना के सकारात्मक पहलुओं को दिखाने में भी सफल हुयी है पर यह बेचती भारत की गंदगी और गरीबी ही है -यह भारत के लिए बनी ही नही है -भला कौन भारतीय अपरिचित है झुग्गी झोपडी की असलियत से ....वहां की गरीबी और घोर घुटन भरी पशुओं से भी बदतर जिन्दगी से ! पर यदि इसे भारत के दर्शक देखते हैं तो वे इसमें वे अपना ही आईना पायेंगे -अपना ही विकृत और खौफनाक चेहरा ! पर यह फिल्म बनी है तो केवल एक ही साभिप्राय मकसद से -पश्चिम को भारत का घिनौना पक्ष दिखा कर पैसे बनाना और पुरस्कार बटोरना .और अपने इस मकसद में फिल्म सफल होती दीख रही है .यहाँ न तो साध्य ही की शुचिता है और न ही साधन की ! दोनों में ही बदनीयती झलकती है ! हाँ मनोरंजन भरपूर है .पर फ़िल्म में मुम्बई के अंडर वर्ल्ड के रा मटेरियल के रूप में वहाँ की झुग्गी झोपडी के मानव संसाधन की खपत के तौर तरीके / मंजर दिल को दहलाने वाले हैं ! किस तरह बेसहरा बच्चों को भीख मांगने के लिए उन्हें अंधा तक कर देने ,उनका दैहिक शोषण और तमाम अभिशप्तता के बावजूद समझ के अभाव के चलते उनकी हीरो वरशिप की प्रवृत्ति आदि इस तरह फिल्म में दिखाई गयी है कि मन विचलित हो उठता है ! पर क्या आम पश्चिमी दर्शक की भी ऐसी ही प्रतिक्रया होगी ? निसंदेह नहीं ! यह फिल्म एक आम पश्चिमी दर्शक के मन में भारत की इमेज को धूल धूसरित ही करेगी -हमारा सिर शर्म से झुकायेगी ही !
बनारस में हाल खाली जा रहा है । वे कथित 'स्लमडाग' फिल्म को देखने नही आए जिनके बारे में यह है -फिर यह फिल्म कम सेकम भारत में पैसा वसूलने से रही !
कई घटनाए साथ साथ ऐसी घटीं कि यह सोचने में उलझन सी हो रही है कि क्या वे मात्र संयोगमात्र हैं -एक स्लम डाग (अश्वेत ) का अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाना -अपने रीयल लाईफ में ! और एक रील लाईफ में इंडियन स्लम डॉग का करोड़पति बन जाना ! लगता है अब 'स्लम डागों ' के दिन बहुरे हैं ! यहाँ किसी को यह बुरा नहीं लगना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति को मैंने स्लम डाग का संबोधन दिया ! जो अमेरिका में अश्वेतों की गाथा जानते हैं वे इसे सही परिप्रेक्ष्य में लेंगे .अब जब हमने अपने झुगी झोपडी वाले साथी प्रवंचितों के लिए स्लमडाग शब्द स्वीकार कर लिया है तो बराक ओबामा के लिए ऐसे शब्द को लेकर नाक भौ का क्या सिकोड़ना ! दोनों ,भारत के झुगी झोपडी वासी और वे -ह्यूमन बीईंग ही तो हैं ! फिर दुहरा मानदंड क्यों ??
फिल्म में पात्रों का अभिनय बड़ा धाँसू है .खास कर झुग्गी झोपडी के "कुत्तों सा जीवन" जी रहे पात्रों का ! कौन बनेगा करोड़पति के एंकर के रूप में अनिल कपूर ने इसी नाम के कार्यक्रम को संचालित कर चुके अमिताभ बच्चन के हाव भाव की काबिले तारीफ़ नक़ल की है !
फिल्म भारत में बनी है ,खर्चा कम आया होगा ! यहाँ बन्दे सस्ते मिलते हैं और अब हमारी ही सरजमीं पर तैयार माल को हमारे ही सर पर ' मियाँ की जूती मियाँ के सर ' स्टाईल में दे मारा गया है .
एक सवाल यह भी है कि क्या कई साम्यवादी देशों में जैसे कि रूस और चीन के अंधेरे पक्षों को भी हालीवुड का माई का लाल ऐसे ही दिखा पायेगा -अनुमति ले पायेगा ? फिर भारत ही ऐसे लोगों को क्यों बर्दाश्त करता है .जिसे देखो वही भारत में मुंह बाए /सर उठाये प्रत्यक्षतः किसी "महान" काम या आतंक तक को अंजाम देने आ पहुँचता है और अपने मकसद में कामयाब हो गर्व से सीना फुलाए चल देता है !
बदलो भारत बदलो -तुम्हे लोग बेंच रहे है ,बदनाम कर रहे हैं ,तुम्हारी सरेआम खिल्लियाँ उड़ा रहे है ! और कोढ़ में खाज यह कि तुम्हारी कमजोरियों का फायदा उठा कर मालामाल भी हो रहे हैं !
खैर फिल्म देख लें -अपना दृष्टिकोण कायम करने में सहजता होगी !
फिलवक्त यहाँ स्लमडाग शब्द के अर्थ और भाव बोध को लेकर द्वंद्व छिड़ा हुआ है मौका लगे तो देखें और आंग्ल भाषा में अपने विचार वहाँ भी टिपिया आयें !

शनिवार, 17 जनवरी 2009

एक सम्मानित और सयंमित चिट्ठाकार रंजना (रंजू ) भाटिया

अभी तक जिन चन्द चिट्ठाकारों के व्यक्ति चित्र मैंने यहाँ उकेरा है उनमे कोई महिला ब्लॉगर नही है -अब कहीं पंच लोग मुझ पर नारी द्वेषी (मीसोजिनिस्ट ) होने की तोहमत न मढ़ने लगें तो यह सर्वथा उचित ही है कि मैं फिलवक्त एक महिला ब्लॉगर को इस पुनीत कर्म के लिए चुन लूँ -पर किसे ? मेरी यह उधेड़बुन कई दिनों से "कस्मै देवाय (बल्कि देवियाय ) हविषा विधेम " की तर्ज पर मुझे सताती रही है पर आज इस ब्रह्म मूहूर्त में फैसला हो ही गया -वे और कोई नही बल्कि रंजना भाटिया उर्फ़ रंजू भाटिया ही हो सकती हैं -वह पहली महिला ब्लॉगर मैं जिनके व्यक्ति चित्र को यहाँ उकेरने का स्वयं प्रदत्त सौभाग्य हासिल कर रहा हूँ .पर पहले रंजना भाटिया ही क्यों ?

जी हाँ ,रंजना भाटिया ही क्यों ? मैं जानता हूँ कि कई नियमित चिट्ठाकार इस प्रश्न पर ही प्रतिप्रश्न कर बैठेंगे कि आख़िर रंजना भाटिया क्यों नहीं ? और उनका प्रतिप्रश्न सचमुच सर्वथा उचित ही होगा ! रंजना भाटिया जो अपने को रंजू के उपनाम से संबोधित होना ज्यादा पसंद करती हैं एक नियमित और सम्मानित ब्लॉगर की हैसियत काफी पहले ही हासिल कर चुकी हैं -उन्होंने कुश के साथ काफी भी पी है और बकलम ख़ुद की भी एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं .तो ऐसे किसी नामी गिरामी चिट्ठाकार को चयन करने का कोई खतरा भी नही है और मेरे कई कल्पनाशील ब्लॉगर मित्रों को कोई ऐसा वैसा कयास लगाने का मौका भी नहीं मिलेगा । और आगे दीगर महिला ब्लागरों की चर्चा का मार्ग भी सहज ही प्रशस्त हो जाएगा । कुछ लोगों का जीवन हमेशा दूसरों के लिए ही होता है -परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर .....यह कुदरत का पता नही कैसा परिहास है -अब देखिये न रंजू जी मेरी पहली चिट्ठाकार चर्चा महिला ब्लॉगर बन कर मेरे लिए आगे की महिला ब्लॉगर चर्चा की ढालभी बन गयी हैं । सारी रंजू जी !

मैंने लंबे समय से रंजू भाटिया की मर्यादित और सयंमित उपस्थिति ब्लाग जगत में देखी है -शायद वे अकेली महिला ब्लॉगर हैं जिन्होंने बिना किसी प्रायोजित मकसद के अपनी साहित्य साधना को यहाँ आभासी जगत में भी बनाए रखा है -यह उनकी कालजयिता को लेकर आश्वस्त करता है -वे एक अच्छी पाठक भी हैं -अब व्यापक विषय वैविध्य लिए इस चिट्ठाजगत में उनकी टिप्पणी -उपस्थिति यत्र तत्र सर्वत्र दिखती रहती हैं .हालांकि वे जिस विधा की समर्पित सर्जनाकार हैं -प्लूटानिक प्रेम ,वह मेरे भेजे में ज्यादा नही घुसता पर यह कमी मेरी है! अब लंबे समय से विज्ञान की साधना में रत रहे किसी अदने से व्यक्ति को प्रेम की उचाईयों की परख भी कैसे हो सकती है ? वस्तुनिष्ठता के बोझ से सदैव आक्रान्त व्यक्ति विषयनिष्ठता में गहरे डूब भी कैसे सकता है .कहीं डूब गया और ऊपर नहीं आ सका तो ?

रंजू जी अमृता प्रीतम की फैन रही हैं बल्कि मुझे तो कभी कभी लगता है वे अमृता की ही कोई कुम्भ मेले की बिछुड़ी जुड़वा बहन ही है -उनकी साक्षात यशः काया हैं, उनकी साहित्यिक विरासत की ही पुंजीभूत मलिका हैं ! प्रेम की रूहानी ऊँचाईयों तक पहुँच कर क्षण प्रतिक्षण उसी के वशीभूत हो रहना हर किसी अस्थि चर्म मय देह वालों के लिए सम्भव नहीं ! पर रंजू जी का यह सहज जीवन ही है .
वे साहित्य के कई रूपों की प्रतिनिधि ब्लॉग लेखिका है पर मूलतः कवि हैं -कवयित्री हैं ! अभी अभी उनका काव्य संग्रह साया प्रकाशित हुआ है और प्रशंसित हो रहा है .अपने एकमात्र एकल ब्लॉग कुछ मेरी कलम से के साथ ही वे दर्जनों सामूहिक चिट्ठों को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा से समृद्ध कर कर रही हैं .और मैं तो उनका सचमुच फैन हो गया हूँ जब से उन्होंने साहित्यिकता को ही एक विस्तृत फलक देकर साईंस ब्लॉगर असोसियेशन आफ इंडिया पर भी डेबू किया और अंटार्कटिका पर यह बेहतरीन दो अंकीय लेख लिखा है -कौन कहता है कि साहित्यकार विज्ञान संचार नहीं कर सकते ? बल्कि वे शायद बेहतर तरीके से कर सकते हैं क्योंकि उन्हें संवाद का सलीका वैज्ञानिकों से बेहतर आता है -वे शब्द कृपण नही शब्द समृद्ध होते हैं ! संचार के गुर और बारीकियों की उन्हें बेहतर समझ रहती है .आप रंजना जी के अन्टार्कटिका लेख को पढ़ ख़ुद फैसला कर लें ।

चिट्ठाजगत को इस सम्मानित ब्लॉगर से बड़ी अपेक्षाएं हैं -मुझे तो कुछ अधिक ही हैं -क्योंकि मैं यह दावा कर सकता हूँ कि मुझे इस बड़ी शख्सियत की अंतर्निहित क्षमता का पूरा भान है । ये अपनी पूरी रचनात्मक ऊर्जा के साथ हिन्दी ब्लॉग जगत को उत्तरोत्तर समृद्ध कर रही हैं निर्विवाद और निर्विकार ! और ऐसे ही प्रयासों को ही लम्बी उत्तरजीविता मिलती है -प्रायोजित प्रयास मिटी के ढूहों और पानी के बुलबुलों के मानिंद क्षणिक जीवी होते हैं -काल के विस्तीर्ण फलक पर उनका नामशेष भी नही रह जाता कोई नामलेवा भी नहीं रहता ।सभी में समभाव , "सकल राममय " की लोकहित कामना और समर्पित सेवाभाव ही यादगार बनता है -नहीं तो "रहा न कुल कोऊ रोवन हारा " की बेकली गले आ पड़ती है .रंजू जी की साहित्यसेवा को मैं " भाषा भनिति भूति भल सोई ,सुरसरि सम सब कर हित होई " के ही निकष पर देखने परखने का आकांक्षी हूँ ! (अब एक साहित्यकार के बारे में जब कुछ लिख रहा हूँ तो ऐसे कुछ उद्धरण देना मजबूरी हो जाती है ना भाई लोगों/लुगाईयों ! फिर रंजना जी को थोड़ा इम्प्रेस भी तो करना है ना ! और कुछ डांट फटकार मिले- क्राईसिस मैनेज भी तो करनी है ! कुछ समझा भी करिए ! )
आईये इस अदम्य ऊर्जा और दृढ़ संकल्पी नियमित और सयंमित ब्लॉगर का अभिनन्दन करें !

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

उर्वशी -पिता जी की एक कविता !

हिमांशु की एक कहानीनुमा कविता ने मुझे स्वर्गीय पिताजी की एक कविता की याद दिला दी -आप भी देंखें शायद अच्छी लग जाय !
उर्वशी
मंद मुस्काती छटा में करुण क्रंदन की कहानी
मद भरे आंखों में अंकित विवशता की मूक वाणी
नूपुरों के कलरवों में चीखता संगीत का स्वर
चितग्राही हर अदा पर घुट रहा यौवन निरंतर (१)
विवशता की इस चिता पर इन्द्रधनुषी स्वप्न जलते
प्रणय के इतिहास मिटते बन्धनों के बंध हसते
रूप यौवन साधना का दुखद परिणति घुटन ही है
प्रेम और श्रृंगार का अभिशप्त संगम जलन ही है (2 )
सर्वगुण संपन्न होकर उर्वशी साधन बनी क्यों
संगीत की देवी न जाने विषय की प्रतिमा बनी क्यों
कोटि उर मे बस रही जो ह्रदय अपना रिक्त रखती
इन्द्र की आराधना में साधना को भ्रष्ट करती (३)
देवता दानव मनुज की वासना का नग्न चित्रण
सिसकती संवेदना में भावना सौदर्य मिश्रण
उर्वशी सौन्दर्य गंगे ,सृष्टि का उपहास है तू
इन्द्र की वैभव शिखा पर अश्रु की बरसात है तूं (4)
सतत शाश्वत लग रही है आज भी तेरी कहानी
युद्ध हो या शान्ति हो तुम हो वही माध्यम पुरानी
सृष्टि की सर्वोत्तमें तुम भ्रष्ट करती ही रही हो
कुछ नहीं तेरा पर इतिहास रचती ही रही हो (5)
पतित करना ही तुम्हारी साधना का साध्य क्यों है
जो तुम्हे साधन बनाता फिर वही आराध्य क्यों है
वेद शास्त्र -पुराण हो या डार्विन फ्रायड की कथाएँ
उर्वशी जीवित रहेगी साथ ही उसकी व्यथाएं (६)

सभी जीवों का कोई आदर्श भी है लक्ष्य भी है
पर तुम्हारी अस्मिता का अर्थ क्या दासत्व ही है
सोचने पर लग रहा है तुम कहीं कुछ भी नहीं हो
मात्र शाश्वत कामना हो उर्वशी संज्ञा बनी हो (७)
डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र (१९६१)

यह कविता १९६१ में हिन्दी विभाग,कलकत्ता विश्वविद्यालय की भित्ति पत्रिका में तब
प्रकाशित हुयी थी जब प्रोफेसर कल्याण मल लोढा जी विभागाध्यक्ष थे ! अभी तो यह
राजेन्द्र स्मृति(२०००) से ली गयी है जिसके सम्पादक साहित्य वाचस्पति डॉ . श्रीपाल सिंह क्षेम जी हैं .

बुधवार, 7 जनवरी 2009

एक अफसर जो ब्लागरों में न्यारा है -ज्ञानदत्त जी (चिट्ठाकार चर्चा )

मैं घने कुहांसे के बावजूद भी चिट्ठाजगत के इस चेहरे को साफ़ साफ देख पा रहा हूँ ! यह जाना पहचाना चेहरा है ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का जो दरअसल यहाँ किसी परिचय का मुहताज नही है .मेरे जैसे रंगरूट ब्लॉगर का उनके बारे में कुछ लिखना किसी ध्रिष्ठता से तो कम नही पर जाने यह कैसी बेहयाई है जो मुझे बेबस कर रही है कि मैं कुछ जरूर व्यक्त करुँ इस ब्लॉगर ह्रदय सम्राट के बारे में ! तो नत नयन कुछ पुष्प समर्पित कर रहा हूँ -ज्ञानदत्त जी तो ज्ञानी हैं हीं अन्य ज्ञानी जन भी मेरी किसी भी भूल को अनदेखा कर के स्नेह बनाये रखेंगे .और मां सरस्वती भी मुझ पर स्नेह बनाए रंखेगी , नाराज नहीं होगी क्योंकि बाबा तुलसी उन्हें पहले से ही यह कह कर संवेदित कर चुके हैं -"कीन्हे प्राकृत गन गुण गाना सिर धुन गिरा लाग पछताना ! " माँ ,मैं तुम्हे आश्वस्त कर दूँ कि जिन चिट्ठाकारों को मैं चिट्ठाकार के रूप में चुन रहा हूँ वे बस प्राकृत जन ही नहीं हैं -यह आप रियेलायिज करोगी मां ! यहाँ मैं ज्ञानदत्त जी को अपने प्रिय संबोधन ज्ञान जी से ही संबोधित करूंगा -वैसे इस संबोधन के एक दूसरे विद्वान ब्लॉगर की भी अब खासी पहचान बन गयी है .
मुझे याद है ब्लॉग जगत में मुझे सबसे पहली टिप्पणी ज्ञान जी की ही मिली थी जो उन्होंने साईब्लाग पर मेरी मछलियों पर लिखी पोस्ट पर की थी- जैसा स्वाभाविक ही था टिप्पणी उत्साहवर्द्धक थी -दरअसल यहाँ एक ब्लॉगर के सिवा मैं मोहकमाये मछलियान में एक मरियल सा मुलाजिम भी हूँ - ज्ञान जी इसे तड से ताड़ गये कहते भये थे कि भई अच्छा लगा जानकर कि मछली के जानकार भी अब ब्लागजगत में उभर रहे हैं -प्रकारांतर से यह कि मछलियाँ भी अब सतह से ऊपर आने लगीं है ! लो ज्ञान जी एक मत्स्य मानव अब आपके सामने धमका है .
पहले कुछ व्यक्ति चित्र टाईप हो जाय ! ज्ञान जी एक बड़े अफसर हैं अपनी रीयल जिंदगी में -अगर वे अफसर नहीं होते तो जानते हैं कि क्या होते ? वे फिर भी अफसर ही होते ! वे जन्मजात अफसर है .रियाया को दूर से देखते हैं -दूर दूर रहते हैं - एक डिफाईंड दूरी बनी हुयी है इनकी -कृपया किसी मुगालते में रहें ! मैं मुगालते में रहकर पछता चुका हूँ -इसका ज्यादा विस्तरेण नहीं पर थोड़ा सा हिंट जरूरी है -अब ज्ञान जी रेलवे के बड़े अफसर ठहरे -कुछ नये ब्लॉगर इन्हे शुरू में मेरी तरह हलके में लेने का ब्लंडर कर देते हैं - लोगों का कहीं कहीं आना जाना बना ही रहता है -लोगबाग सहज ही सोच लेते हैं कि अपने ज्ञान भैया तो हैं हीं -एक रेल विभाग का बड़ा अफसर जब ब्लागर बिरादरी में है ही तो फिर रेल की छोटी मोटी सुविधाएँ सहज ही ब्लॉगर लोगों को उपलब्ध रहेंगी .नही मित्रों ,ज्ञान जी पहले ही अपनी एक पोस्ट में इस मुद्दे पर खबरदार कर चुके हैं -यहाँ वे पूरी तरह अफसर हैं ! काश मैं वह पोस्ट(क्या कोई बंधु बांधवी लिंक दें सकेंगे ?) पहले ही पढ़ चुका होता तो अपने नए नए ब्लागरी के दिनों में ऐसी ही एक फरियाद ज्ञान जी से करता जो मैं अनिर्णय और विमोह की स्थिति में कर बैठा था और ज्ञान जी ने अपनी वह धांसूं पोस्ट मुझे पढ़ा दी थी .हाँ अगर आप जमे जमाये फुरसतिया ब्लागर हो चुके हैं या आपका ऐसे किसी ब्लॉगर से सोर्स सिफारिश का माद्दा है तो फिर ज्ञान जी आपकी मदद कर सकते हैं कुहांसे के बिना और बावजूद भी !
ज्ञान जी सुवर्ण प्रेमी हैं -नए नये वर्णों के प्रति उनका सहज आकर्षण है . ईथोलोजी-व्यवहार शास्त्र शब्द से वे इतने प्रभावित हुए की मुझे उत्साहित कराके उन्होंने साईब्लाग पर एक श्रृंखला ही इस विषय पर आरम्भ करा दी ! चूकि उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक है अतः प्रायः अंगरेजी शब्दों का उनका लगाव ब्लागजगत पर भी दर्शित होता रहता है, कुछ लोगों का उनका यह आंग्ल प्रेम फूटी आंखों नही सुहाता पर मुझे तो ज्ञान जी का यह शगल बहुत भाता है और नए शब्द और उनके सटीक प्रयोग मैंने ज्ञान जी से सीखा है , उनका ऋणी हूँ !चिट्ठाजगत में अभी भी घूम रहे इनीशियल एडवांटेज शब्दबोध के जनक ज्ञान जी हैं .
ज्ञान जी एक प्रतिभासंपन्न,परिष्कृत रुचियों वाले अध्ययनशील नामचीन ब्लॉगर तो हैं हीं वे मजे हुए टिप्पणीकार भी हैं .उनकी टिप्पणियाँ सारभूत भाव लिए होती हैं जिससे सहज ही लग जाता है की सम्बन्धित ब्लाग पोस्ट को उन्होंने तन्मयता से आद्योपांत पढा है -और वे वोरेसियस रीडर तो है ही अतः बहुत से ब्लागों को पढ़ते हैं और टिप्पणियों का प्रोत्साहन देते रहते हैं -घोस्ट बस्टर ने सही कहा था कि ब्लागजगत के त्रिदेवों में ज्ञान जी हैं और निश्चय ही महादेव हैं वे बाकी को तो आप भी जानते ही हैं ! मगर हाँ इन्हे ज़रा भी नानसेंस या न्यूसेंस बर्दाश्त नही है -आख़िर नम्बर वन आफीसर जो ठहरे !एक आफीसरनुमा ब्लॉगर ! बाकी मैं और कुछ दूसरे भाई बन्धु तो बस ब्लागर्नुमा अफसर ही बन के रह गये हैं ! जब ब्लागजगत को कुछ लोगों ने हाईजैक करने का उपक्रम किया था तो ज्ञान जी ने उन्हें पहले ही उपेक्षित कर दिया था उनके ब्लागों तक को त्याग दिया था -बादमें लोगों को सदबुद्धि आयी !ज्ञान जी बस एक ब्लॉग लिखते हैं -मानसिक हलचल -और वह एक ही भारी है ! कहते है ना कि एकै साधे सब सधे सब साधे सब जाय ! मगर एक बात है अपने सारथी वाले शास्त्री जी हैं न और ज्ञान जी ये ब्लॉग से अंतर्जाल पर धन कमाने के जुगाड़ में कई पोस्ट लिख डाले हैं -अब इन्हे इश्वर का दिया सब कुछ तो है मगर फिर इस लफडे में ये क्यों पड़े रहे बात हजम नहीं हुयी.इधर तो इस मुद्दे पर शान्ति है जो मुझे बहुत सकूं दे रहा है ! ज्ञान जी के अवदान कालजयी बनें यही अभिलाषा है !


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