मैं ब्लागजगत में असहमतियों के मुद्दों को यही सार्वजनिक मंच पर निपटा लिया जाना उचित समझता हूँ . मुझे धमकाया जा रहा है कि मैं अपने वकील /विधि परामर्शी से मिल कर एक मामले में मुतमईन हो लूं -सो मामला यहाँ महा पंचायत में रख रहा हूँ-
बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो ,ज़बाने ख़ल्क़ को नक़्क़ारा ए ख़ुदा समझो!
नारी ब्लॉग पर विगत दिनों किसी अन्य स्रोत से एक आलेख अंगरेजी में पोस्ट किया गया . चूंकि ब्लॉग एक नारी सक्रियक का है अतः मैंने यह टिप्पणी की -
"जब आप इतना समर्पित हैं नारी आन्दोलन के लिए तो इसका अनुवाद नहीं कर सकतीं ? बस बिना कुछ किये धरे मुक्ति का बाट जोह रही हैं ?"
-जवाब दिया गया -
Dr Arvind Mishra
Your comment comes under sexual harassment and if I want I can take you to court . if you don't believe me you can talk to any lawyer . Also let me tell you that your latest post where you have insulted woman bloggers by calling them blograa is also has undertones of sexual harassment again you can be sued for the same . Kindly check with some competent lawyer before you start posting remarks that are insulting for a woman writer
regds
rachna
http://mishraarvind.blogspot.com/2009/12/blog-post_23.html
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2009/12/blog-post_29.html
इतनी समझ और विवेक मुझे है कि देश का क़ानून जाने अनजाने भी कहीं अतिक्रमित न हो जाय -इस दलील से भी पूरी तरह वाकिफ हूँ कि क़ानून के मामले में अनभिज्ञता बचाव की दलील नहीं है . मगर मैं तो हतप्रभ हूँ और खुद को ही धमकाया जाना सा महसूस कर रहा हूँ यहाँ तो. अब आप सभी फैसला करें कि मैंने क्या लेश मात्र भी नारी का अपमान किया है जो मेरी काबिल दोस्त सुश्री रचना सिंह जी मुझे धमका रही हैं. मैं बताता चलूँ कि शुरू शुरू में जब मैंने ब्लागिंग में कदम ही रखा था तो इन्होने उस समय मुझे ऐसे ही बिना बात के धमका लिया था -बात आई गयी हो गयी . मगर इस बार यह मामला आपके सामने रखे बिना चैन नहीं मिल रहा. सोचता हूँ यह इसी वर्ष निपट जाय तो ठीक . और हाँ मैं अगर देश के किसी भी क़ानून का उल्लंघन करने का दोषी पाया जाता हूँ तो निर्धारित दंड को सहज ही स्वीकार करूंगा -मैं भी आम हिन्दुस्तानी की तरह एक विधि भीरु इंसान हूँ !
बुधवार, 30 दिसंबर 2009
शनिवार, 26 दिसंबर 2009
नायिकाओं के कतिपय उपभेद (नायिका भेद श्रृंखला का समापन )
सोलह नायिकाओं के उपरान्त कतिपय उपभेदों की भी चर्चा कर ली जाय.वैसे ये उपभेद तो मुख्य रूप से वर्णित सोलह नायिकाओ की मनस्थिति और उनकी दशा में तनिक विचलन की ही प्रतीति हैं! अब जैसे शील -संकोच और सलज्जता के लिहाज से नायिकाओं के तीन उपभेद हैं -मुग्धा ,मध्या और प्रगल्भा !
तो क्या राधा प्रगल्भा नहीं हैं ?
नायक के प्रति जिस नायिका का व्यवहार सलज्ज और संकोचशील होता है उसे मुग्धा कहते हैं और उत्तरोत्तर बढ़ती घनिष्ठता से जब यह संकोच और लज्जा कमतर होने लगती है तो वह मध्या बन जाती है और पूर्णयौवना नायिका जब नायक के साथ निःसंकोच व्यवहार करने लगती है तो वह प्रगल्भा बन जाती है! जैसे मुख्य नायिका भेद की संयुक्ता का उदाहरण प्रगल्भा से ही तो सम्बन्धित है.
ये समहितायें तो नहीं ?
इसी तरह नायक के नायिका के प्रति समर्पण ,आंशिक अथवा अनन्य प्रेम के आधार पर नायिकाएं चार प्रकार की वर्गीकृत हई हैं .समहिता ,ज्येष्ठा,कनिष्ठा और स्वाधीनवल्लभा . एकाधिक प्रेयसियों में जब नायक का प्रेम समान रूप से बटता है तो इसमें से कोई भी समहिता कहलाती है .और ऐसी ही स्थिति के अन्य प्रकरण में जिस नायिका को प्रेमी का अधिक प्रेम मिलता है अर्थात जो अपेक्षाकृत अधिक प्रेम की अधिकारिणी बन उठती है तो वह ज्येष्ठा कहलाती है और जो नायक का सबसे कम प्रेम हासिल कर पाती है नवयौवना कनिष्ठा होती है ! ..और नायक के अविभाजित प्रेम की अनन्य अधिकारिणी,उसके दिल पर एक छत्र राज्य करने वाली नायिका स्वाधीनवल्लभा कहलाती है ! यही स्वाधीनवल्लभा ही पूर्णरूपेण समर्पिता भी है ,गर्विता है -रूप गर्विता और प्रेमगर्विता भी!
स्वाधीनवल्लभा सीता
इस प्रविष्टि के साथ ही नायिका भेद की यह श्रृंखला अब समाप्त हुई! यह बिना आपके अनवरत स्नेह और प्रोत्साहन के समापन तक नहीं पहुँच सकती थी ! आप समस्त सुधी पाठकों का बहुत आभार ! स्वप्न मंजूषा शैल का मैं विशेष रूप से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी व्यस्तता के बावजूद इस श्रृंखला के लिए पूरी तन्मयता और परिश्रम से सटीक चित्र जुटाए ! अकादमिक कार्यों के प्रति उनकी यह निष्ठां उनके प्रति मन में सम्मान जगाती है -उनकी इस विशेषता को मेरे सामने उजागर किया था वाणी जी ने -इसलिए "बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय" के अनुसार वे भी मेरी सहज कृतज्ञता की अधिकारिणी हैं ! आराधना चतुर्वेदी(मुक्ति ) के लिए मेरे मन में कृतज्ञता और प्रशंसा के मिश्रित भाव हैं जो संस्कृत की अधिकारी विद्वान् हैं और जिन्होंने नायिका भेद के शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत श्रृंखला का परिशीलन किया और समय समय पर आपने दृष्टिकोण से अवगत कराते हुए मेरा मार्गदर्शन किया! मित्रों (नर नारी दोनों ) में कई नाम हैं और वे जान रहे होगें /रही होगीं कि मैं उनके सौहार्द के प्रति कितना संवेदित रहता हूँ -अतः सभी का अलग से नामोल्लेख करना कदाचित जरूरी नहीं है!
उन सभी प्रखर विरोधियों का भी मैं ह्रदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपने विरोध से मेरे संकल्प को और भी दृढ बनाया! अगर नर नारी के संयोग वियोग/श्रृंगार पक्ष को साहित्य से ख़ारिज कर दिया जाय तो न जाने कितनी राग रागिनियाँ ,कला चित्र -पेंटिंग्स ,गीत गायन को भी हमें अलविदा कहना पड़ेगा! कुछ नारीवादी इसे नारी के शरीर के प्रति पुरुष का अतिशय व्यामोह जैसा गुनाह मानते/मानती हैं -उनसे यही कहना है नर नारी निसर्ग की उत्कृष्टतम कृतियाँ हैं -जब हम प्रकृति की अनेक रचनाओं का अवलोकन कर आनंदित होते हैं तो फिर यहाँ अनावश्यक प्रतिबन्ध और वर्जनाएं क्या हमारी असामान्यता की इन्गिति नहीं करते ?
मैंने सोचा था कि इसी श्रृंखला में ही नायक भेद को भी समाहित कर लूँगा मगर तब तक वर्ष का अवसान आ गया -इसलिए अब इस पुनीत कार्य को अगले वर्ष पूरी जिम्मेदारी से (जल्दीबाजी से नहीं )करने का संकल्प लेता हूँ!
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
एक अजूबा मेरे आगे -यह कैसा पीपल का पेड़!
चैन बाबा समाधिस्थ है यहाँ -अद्भुत पीपल का पेड़ -चूड़ामडिपुर ,जौनपुर
मेरा गाँव मेरे लिए चिर प्राचीनता के साथ ही चिर नवीनता का भाव बोध लिए रहता है -किसी मित्र ने एक बार टोका भी था कि जब जब आप घर जाते हैं कुछ न कुछ नया ब्लॉग मटेरियल आपको मिल ही जाता है! सही है और इस बार तो मैं विस्मित ही रह गया जब मुझे बताया गया कि गाँव में एक चित्र विचित्र पीपल का पेड़ है जहां एक लोक देवता चैन बाबा की समाधि भी है और सभी सद्य विवाहित जोड़े को वहां जाना पड़ता है -आशीर्वाद के लिए -मैं क्यों नहीं गया था वहां ?-जवाब मिला कि मेरे कुछ अनुष्ठान सम्पूर्णता के बजाय शार्टकट हो गये थे-लगता है चैन बाबा का विलम्बित बुलावा आ गया था और मुझे जाना ही था!सचमुच यह पीपल का वृक्ष तो देखने के मामले में न भूतो न भविष्यति टाईप का ही लग रहा था -विस्मय और भयोत्पादक ! आखिर चैन बाबा के ठीक समाधि पर अवस्थित था वह! अब ऐसे दृश्य को देखकर कोई नतमस्तक हुए बिना कैसे रह सकता है!लिहाजा मैं तुरत नतमस्तक हो गया -आप भी देर न कीजिये ! फिर इतिहास पुराण की ओर ध्यान दिया -पता लगा कि बस्ती के ही एक ब्राह्मण पुरखे ने तत्कालीन समाज (समय का निर्धारण नहीं हो पाया -मगर बात २५०-300 वर्ष पीछे से कम की नहीं है ) के सामंतों /जमीदारों के शोषण और अत्याचार से जीवित समाधि ले ली थी ! और कालांतर में यह पीपल का पेड़ वहां उग आया मगर इसमें कोई केन्द्रीय तना नहीं नहीं है -बस ऊपर से नीचे यह घनी पत्तियों से ढका है !
तनिक और निकट से -तना फिर भी नहीं दिखा
एक ब्राह्मण का आत्मत्याग अब शायद एक अमर कथा में तब्दील हो गया है -जन -स्मृतियाँ न जाने कब तक चैन बाबा की कथा को जीवित बनाये रखेगीं ! त्याग भारतीय मनीषा में एक स्थाई भाव तत्व जो है !
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
....जैसे अदाकारा ,शायरा वैसे ब्लागरा/चिट्ठाकारा क्यों नहीं?
मुझे बड़ा ताज्जुब सा हुआ जब एक मोहतरमा ने मुझसे चैट के दौरान अचानक पूंछ लिया, " ...जैसे अदाकारा ,.शायरा वैसे ब्लागरा/चिट्ठाकारा क्यों नहीं ?" मैं अचकचा गया! अंगरेजी शब्दों का हिन्दीकरण और उनके लिंग परिवर्तन के औचित्य और अनौचित्य पर ब्लागजगत में काफी बहस भी हो चुकी है! मैंने कहा कि यह कुछ अच्छा नहीं लग रहा है ,अनकुस सा लगता है कुछ! उन्होंने तपाक से उत्तर दिया बल्कि प्रश्न पूंछ लिया या यूं कहिये कि प्रश्नात्मक उत्तर सामने धर दिया कि कवि हैं तो कवयित्री भी हैं ,शायर हैं तो शायरा भी हैं ,अदाकार हैं तो अदाकारा भी हैं तो जब ब्लॉगर हैं तो फिर ब्लागरा क्यों नहीं ? मैंने कहा कि बहुत करके मैं चिट्ठाकारा शब्द तो स्वीकार कर सकता हूँ मगर ब्लागरा तो गले नहीं उतर रहा -उन्होंने मेरे सौन्दर्य बोध को ललकार दिया -कहा जरा ध्यान केन्द्रित करके तो देखिये कितना सुघड़ शब्द है -ब्लागरा -पूरी शायरा सी नजाकत नफासत लिए हुए ! अब मैं अप्रस्त्तुत असहाय सा उनका तर्क सुनता रहा -पहली बार अपने वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर जोर का रोना आया -काश थोड़ी संस्कृत पढी होती ,थोडा भाषा विज्ञान जाना होता और किसी वैयाकरण से दीक्षा ली होती तो आज एक "ब्लागरा" से मुंह की न खानी पड़ती! वे तो चली गयीं मगर मन को उद्विग्न छोड़ दिया !
अब डूबते को तो तिनके का ही सहारा होता है मगर मैंने गिरिजेश भाई को फोन मिलाया -इन दिनों उनके शब्द और शब्दार्थ ज्ञान से कईयों की कंपकपी छूट रही है ! मैंने उनके सामने सारा प्रसंग और संदर्भ रख दिया -वे ठठाकर हँस ही तो पड़े ,बोले कि इस समस्या को सार्वजनिक रूप से लाईये तभी कुछ कहना ठीक रहेगा और फिर ठिठोलियों में लग गए! लगे घाघरा का उद्धरण देने! मतलब उनसे अब उम्मीद खत्म थी ! इस मुद्दे पर फिर जीशान से बात की -उनकी उर्दू की जानकारी ठीक ठाक है ! मैंने उनसे पूंछा कि क्यों जीशान भाई शायरा या अदाकारा की ही तर्ज पर क्या ब्लागरा उपयुक्त शब्द है और हम इसका व्यवहार नेट पर शुरू कर दें -उनकी तुरत फुरत राय थी, नहीं पोयटेस या ऐक्ट्रेस की तरह ब्लाग्रेस कहना ज्यादा मुफीद होगा मगर फिर तुरत ही पलट गए ! कहा कि इससे तो मिस्ट्रेस की बू आ रही है लिहाजा ब्लाग्रेस भी ठीक नहीं ! बहरहाल यहाँ से भी निराशा भी मिली ! दुर्भाग्य कि कोई संस्कृत वाला या वाली से सम्पर्क ही नहीं हो पाया(लगता है अब नंबर लेकर रखना होगा )! एक ब्लागजगत में हैं भी तो उन्हें विद्वानों से फुरसत ही नहीं रहती -हम संस्कृत हीनो के लिए उनके पास समय कहाँ ? और भी कोई हैं तो उनसे फिलहाल इतनी छूट नहीं ली जा सकती !
तो अब यह विषय खुली चर्चा के लिए रख रहा हूँ -इस ब्लागमानस में तो नीर क्षीर निर्णय हो ही जायेगा . न जाने क्यूं मुझे ब्लागरा शब्द से अचानक ही इतना नेह क्यूं हो गया है -कई उदित और उदीयमान नारी ब्लागरों के नाम के आगे पीछे इसे जोड़कर देखने पर कुछ के साथ तो यह खूब फब भी रहा है ! शायरा शायरा सा कुछ! भले ही व्याकरण के लिहाज से यह गलत हो मगर एक काव्यमय सौन्दर्य तो इसमें निश्चित तौर पर है -विश्वास न हो तो मेरी टेक्नीक इस्तेमाल कर देख लें! अगर हम आगे किसी महिला ब्लॉगर का तआर्रुफ़ करते वक्त यह कहेगें कि लीजिये मिलिए मोहतरमा से.... ये हैं एक मशहूर ब्लागरा ......तो कितना अच्छा लगेगा! हैं ना ? फिर ब्लॉगर शब्द नपुंसक लिंग ही क्यों बना रहे ? आज के दौर में चारो ओर विशिष्ट से दिखने की चाह में महिला ब्लागर अगर ब्लागरा का संबोधन स्वीकार कर लें तो हर्ज ही क्या है ?
अब डूबते को तो तिनके का ही सहारा होता है मगर मैंने गिरिजेश भाई को फोन मिलाया -इन दिनों उनके शब्द और शब्दार्थ ज्ञान से कईयों की कंपकपी छूट रही है ! मैंने उनके सामने सारा प्रसंग और संदर्भ रख दिया -वे ठठाकर हँस ही तो पड़े ,बोले कि इस समस्या को सार्वजनिक रूप से लाईये तभी कुछ कहना ठीक रहेगा और फिर ठिठोलियों में लग गए! लगे घाघरा का उद्धरण देने! मतलब उनसे अब उम्मीद खत्म थी ! इस मुद्दे पर फिर जीशान से बात की -उनकी उर्दू की जानकारी ठीक ठाक है ! मैंने उनसे पूंछा कि क्यों जीशान भाई शायरा या अदाकारा की ही तर्ज पर क्या ब्लागरा उपयुक्त शब्द है और हम इसका व्यवहार नेट पर शुरू कर दें -उनकी तुरत फुरत राय थी, नहीं पोयटेस या ऐक्ट्रेस की तरह ब्लाग्रेस कहना ज्यादा मुफीद होगा मगर फिर तुरत ही पलट गए ! कहा कि इससे तो मिस्ट्रेस की बू आ रही है लिहाजा ब्लाग्रेस भी ठीक नहीं ! बहरहाल यहाँ से भी निराशा भी मिली ! दुर्भाग्य कि कोई संस्कृत वाला या वाली से सम्पर्क ही नहीं हो पाया(लगता है अब नंबर लेकर रखना होगा )! एक ब्लागजगत में हैं भी तो उन्हें विद्वानों से फुरसत ही नहीं रहती -हम संस्कृत हीनो के लिए उनके पास समय कहाँ ? और भी कोई हैं तो उनसे फिलहाल इतनी छूट नहीं ली जा सकती !
तो अब यह विषय खुली चर्चा के लिए रख रहा हूँ -इस ब्लागमानस में तो नीर क्षीर निर्णय हो ही जायेगा . न जाने क्यूं मुझे ब्लागरा शब्द से अचानक ही इतना नेह क्यूं हो गया है -कई उदित और उदीयमान नारी ब्लागरों के नाम के आगे पीछे इसे जोड़कर देखने पर कुछ के साथ तो यह खूब फब भी रहा है ! शायरा शायरा सा कुछ! भले ही व्याकरण के लिहाज से यह गलत हो मगर एक काव्यमय सौन्दर्य तो इसमें निश्चित तौर पर है -विश्वास न हो तो मेरी टेक्नीक इस्तेमाल कर देख लें! अगर हम आगे किसी महिला ब्लॉगर का तआर्रुफ़ करते वक्त यह कहेगें कि लीजिये मिलिए मोहतरमा से.... ये हैं एक मशहूर ब्लागरा ......तो कितना अच्छा लगेगा! हैं ना ? फिर ब्लॉगर शब्द नपुंसक लिंग ही क्यों बना रहे ? आज के दौर में चारो ओर विशिष्ट से दिखने की चाह में महिला ब्लागर अगर ब्लागरा का संबोधन स्वीकार कर लें तो हर्ज ही क्या है ?
रविवार, 20 दिसंबर 2009
आज मन कुछ भडासी हुआ
जी हाँ यह पोस्ट इस ब्लॉग (नया भंडास ) के प्रेरक वाक्य कि " कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा..." से उत्प्रेरित है ! यह वर्ष बीतने को बस गिने चुने दिन रह गए हैं ! सोचता हूँ मन पर छाये कुछ मटमैलेपन को दूर कर नए वर्ष के लिए मन को तरोताजा करुँ -एक नए उत्साह और खुलेपन से नए वर्ष का स्वागत करुँ ! ब्लागजगत में आये मुझे भी कुछेक वर्ष तो बीत ही चले -मगर यहाँ यह वर्ष तिक्तता ,मनोमालिन्य ,खिन्नता का जो दंश देकर जा रहा है शायद उसकी स्मृति आगे भी कई वर्षों तक सालती रह सकती है ! आत्मान्वेषण करता हूँ तो खुद को भी बरी नहीं कर पाता ! देखता हूँ दिन ब दिन अपने व्यवहार में हठी और आक्रामक होता जा रहा हूँ जबकि विनम्रता के महात्म्य से भलीभाति परिचित हूँ ! क्या यह सठियाने की शुरुआत है? -कल ही ५२ वर्ष का हो गया! इन दिनों ज्यादा लगता है कि दुष्टों और हार्डकोर अपराधियों को कठोर दंड मिलना ही चाहिए ! जैसे शंकर ने गुरू के अपमान पर एक शिष्य (जो आगे चलकर काकभुशुण्डी बना ) को श्राप ग्रस्त कर दिया -
जौ नहीं दंड करहुं खल तोरा भ्रष्ट होई श्रुति मारग मोरा
-मतलब जो तुम्हे दंड नहीं देता हूँ तो मेरा वेदमार्ग का आचरण ही नष्ट हो जाएगा ! दंड विधान भी यही कहता है कि कुछ लोगों को दंड देने में ही जन कल्याण निहित है ! समाज सुधारक अलग रवैया अपनाते हैं -गांधी जी तो कहते भये हैं -पाप से घृणा करो पापी से नहीं ! मगर ये पाप फैलाता कौन है ? फिर ये सोचता हूँ मैं कोई दंडाधिकारी तो हूँ नहीं और कुदरत ने भी ऐसी कोई काबिलियत मुझमें नहीं देखी तो फिर काहें इन पचड़ों में पडू -जो जैसा करेगा वैसा भरेगा ! और पाप पुण्य ,नैतिकता और अनैतिकता ,उचित अनुचित सब तो सापेक्षिक हैं !अलग अलग परिप्रेक्ष्यों में अलग तरीके से देखे सुने जाते हैं!
मगर इस मन का क्या करूं जो लोगों के आचरण से कभी कभी बहुत संतप्त हो जाता है ! अभी उसी दिन एक मेल प्राप्त हुआ -
""लेकिन अफ़सोस होता है आपकी बचकानी समझ में।
आपकी एक टिप्पणी के बारे में मेरे एक मित्र की टिप्पणी थी--
अरविन्द जी मुझे हर बार धोखा दे जाते हैं। मैं जब भी यह सोचता हूं (यहाँ कौन जाने सोचती हूँ भी हो सकता है -मित्र का नाम तो बताया नहीं न ) कि आप और नीचे न गिरेंगे तब वे पांच फ़ीट और नीचे गिर जाते हैं। अद्भुत पतन प्रतिभा है उनमें।"
आपकी एक टिप्पणी के बारे में मेरे एक मित्र की टिप्पणी थी--
अरविन्द जी मुझे हर बार धोखा दे जाते हैं। मैं जब भी यह सोचता हूं (यहाँ कौन जाने सोचती हूँ भी हो सकता है -मित्र का नाम तो बताया नहीं न ) कि आप और नीचे न गिरेंगे तब वे पांच फ़ीट और नीचे गिर जाते हैं। अद्भुत पतन प्रतिभा है उनमें।"
-- अब यह संवाद दो मित्रों के बीच का है जो एक तीसरे मित्र यानि मुझ पर फोकस थे !--यहाँ इंच और टेप लेकर मेरे गिरने की गति नापी जा रही है -अब मैं भी हांड मांस का बना साधारण मानुष ही हूँ किसी भी ईश्वरीय प्रतिभा से पूर्णतया रहित -अब क्यों न ऐसे वार्तालाप पर उद्विग्न न हो जाऊं -पर यह कड़वा घूँट भी गटक लिया है ! अब आप ही पंच फैसले करें कि जब ऐसे वार्तालाप और दुरभिसंधियाँ ब्लॉग जगत में चल रही हों तो मन दर्द से क्यूं न भर जाय!
बहरहाल आईये हम नए वर्ष के आगमन में थोडा और सहिष्णु बने ,विनम्र बनें ,एक दूसरे का सम्मान करना सीखें -सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार का अनुपालन करें ! लोगों को अपने व्यवहार से खुश करें और खुद इस प्रक्रिया में खुश हों ! कटुता के वातावरण से ब्लॉग जगत को छुटकारा दिलाएं ! ये संकल्प हम जल्दी से ले ले क्योंकि नए वर्ष में /के लिए तो और भी संकल्प करने हैं न ! अंत में एक आह्वान यह भी कि प्लीज ब्लॉग जगत को छोड़ कर कर न जाएँ -आप हैं तो यह ब्लॉग जगत भी गुलजार है!
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
क्या विवाहिता को सुश्री कहना अनुचित है?(मायिक्रो पोस्ट)!
एक सज्जन ने मुझे लताड़ा है कि मैंने विवाहिता के लिए भी सुश्री का संबोधन दिया है जो कि गलत है! सुश्री का संबोधन केवल अविवाहिता के लिए ही होना चाहिए! यह मामला अब मैं ब्लॉग जगत की महापंचायत में रख रहा हूँ -अपनी समझ बुद्धि के अनुसार मैंने उन्हें यूं समझाया है -
"मैं समझता हूँ कि सुश्री चूंकि वैवाहिक स्थिति को नहीं दर्शाता इसलिए आधुनिक रीति रिवाज में यह विवाहित महिलाओं के लिए भी प्रयुक्त होता है -अंगरेजी में भी इसका समानार्थी ms है जिसका उच्चारण मिज़ है -या यूं कहिये कि ms की प्रतिपूर्ति हिन्दी मे सुश्री के रूप में हुई -अंग्रेजी में Mrs .(मिसेज ) कहना अब पिछड़ापन माना जाता है -अंगरेजी पत्र पत्रिकाओं में ज्यादातर ms शब्द का प्रयोग होता है .....मगर फिर भी यह अपने अपने विवेक और पसंद पर है कि आप विवाहित महिला को मिज कहते हैं मिसेज !"
क्या कहते हैं प्रबुद्धजन ,शिष्टाचार नियामक और पंच लोग ?
जीवन शैली ...आचार व्यवहार
"मैं समझता हूँ कि सुश्री चूंकि वैवाहिक स्थिति को नहीं दर्शाता इसलिए आधुनिक रीति रिवाज में यह विवाहित महिलाओं के लिए भी प्रयुक्त होता है -अंगरेजी में भी इसका समानार्थी ms है जिसका उच्चारण मिज़ है -या यूं कहिये कि ms की प्रतिपूर्ति हिन्दी मे सुश्री के रूप में हुई -अंग्रेजी में Mrs .(मिसेज ) कहना अब पिछड़ापन माना जाता है -अंगरेजी पत्र पत्रिकाओं में ज्यादातर ms शब्द का प्रयोग होता है .....मगर फिर भी यह अपने अपने विवेक और पसंद पर है कि आप विवाहित महिला को मिज कहते हैं मिसेज !"
क्या कहते हैं प्रबुद्धजन ,शिष्टाचार नियामक और पंच लोग ?
जीवन शैली ...आचार व्यवहार
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
रचना त्रिपाठी का रचना लोक -चिट्ठाकार चर्चा
इलाहाबाद के ब्लागिंग सम्मलेन की याद तो अभी होगी ही ....एक शख्सियत (फोटो बदलें!) वहां होकर भी अपनी अनुपस्थिति का अहसास शिद्दत से करा गयी और लानत है ब्लॉगर भाई बन्धु बान्धवियों को कि इसकी आज तलक चर्चा भी नहीं हुई है ! वे सहचरी हैं उस महानुभाव की जिनकी बदौलत ब्लागिंग सम्मलेन मूर्त रूप ले सका था - मतलब "तात जनक तनया यह सोई ब्लॉगर सम्मलेन जेहिं कारन होई " की खुद की अर्धांगिनी और एक संभावनाशील ब्लॉगर और मेरी एक प्रिय चिट्ठाकार रचना त्रिपाठी उस सम्मलेन में आयीं भी और कोई देख नहीं सका ! गिरिजेश भईया ने तत्क्षण उत्कंठा भी की थी और मैंने उनकी मदद और खुद की भी जिज्ञासा पूर्ति के लिए नजरें भी इधर उधर फेरीं थीं मगर मेरा यह प्रिय ब्लॉगर नहीं दिखा था वहां! सच कहूं कुछ खिन्नता तो मन में तभी आ गयी थी ! रचना त्रिपाठी ने बहुत उत्साह से ब्लागिंग की दुनिया में कदम रखा था - टूटी फूटी का प्रगट उद्घोष मगर परोक्षतः कई सरोकारों से जुड़े चिट्ठे का आगाज होने के कुछ समय बाद ही इलाहाबाद में राष्ट्रीय चिट्ठाकारिता सम्मलेन , जहां इस ब्लॉगर का डेबू अपेक्षित था किन्तु इनका नामोनिशान तक न था !
मैं कृतित्व से बढ़कर किसी भी रचनाकार के व्यक्तित्व को सर माथे रखता हूँ (लोग लुगाई नोट कर लें ताकि सनद रहे ) और तिस पर यदि कृतित्व भी बेहतर हो जाय तो फिर पूंछना ही क्या ? सोने में सुगंध ! कुछ ऐसी ही हैं मेरी प्रिय चिट्ठाकार सुश्री रचना त्रिपाठी .अब उन्हें कितने विशेषणों से नवाजू -कुछ धर्मसंकट समुपस्थित हैं -एक तो अनुज की भार्या और दूसरे नारी!यहाँ ब्लागजगत में ऐसे लोग भरे पड़े हैं कि सहज ही व्यक्त बातों को भी औचित्य -अनौचित्य ,शील अश्लील के बटखरे से तौलने लगते हैं! मगर अपनी बात तो कहूँगा ही और कुछ अनुज से उनके ही प्रदत्त अधिकार/लिबर्टी का सदुपयोग करते हुए! रचना त्रिपाठी का व्यक्तित्व पहले . वे मेरे घर भी आ चुकी हैं -यूं कहिये की मेरे घर को त्रिपाठी दम्पति आकर धन्य कर चुके हैं ! ऐसा पता नहीं क्या हुआ कि वह शुभागमन रिपोर्ट आप तक नहीं पहुँच सकी -आज शायद कुछ भरपाई हो पाए ! उन्हें देखकर तो मुझे भी तुलसी बाबा का सा वही अनिश्चय /असमंजस सहसा हो आया -....सब उपमा कवि रहे जुठारी केहिं पटतरौ विदेह कुमारी . ....और बस उसी झलक की ललक में हिन्दुस्तानी अकेडमी के हाल के उस भव्य उदघाटन सत्र में मैंने उसी छवि को एक बार देख लेने की आस में जब निगाहें उठाई थीं तो कुछ ऐसी ही प्रत्याशा थी -रंग भूमि जब सिय पगधारी देख रूप मोहे नर नारी ...मगर घोर निराशा ही हाथ लगी ! आखिर उस समारोह में क्यों मेरा यह प्रिय ब्लॉगर अनुपस्थित हो रहा था ? किसके पास जवाब है इसका ? क्या यह कोई षड्यंत्र था ? या थी एक बेचारी गृहणी की कोई अकथ विवशता ?
सम्मलेन के अकादमीय पक्ष से जहाँ मैं संतुष्ट रहा वहीं कतिपय मानव संसाधन के नौसिखिया प्रबंध (जिसे बेड टी न दिए जाने के रूप में मैंने हाई लाईट किया था -हा हा )से थोडा तमतमाया भी था .मगर मेरी प्रिय ब्लॉगर ने पूरे उलाहने के स्वर में मुझसे कहा "भाई साहब अगर आपको कोई असुविधा हुई थी तो मुझसे कहते ...." मैं तब ग्लानि बोध से दब सा गया था ! मगर फिर मन में आया कि जरूर कहता अगर आप वहां उस तामझाम का हिस्सा होतीं ! मगर उनका उलाहना अपनी जगह दुरुस्त था -मुझे औपचारिक प्रबंध से निराश होने पर इस अनौपचारिक सौजन्यता के शरण में जाना ही चाहिए था -मगर मेरे प्रिय चिट्ठाकार को कोई असुविधा न हो इसका भी तो ख्याल मुझे ही करना था ! उनसे बड़ा जो हूँ ! उम्र,ब्लागिंग और सामाजिक पद में भी !
रचना त्रिपाठी (बार बार त्रिपाठी लिख कर डिसटीन्ग्विश करना पड़ रहा है ,उफ़ !) विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं -उन्हें तो साईंस ब्लागिंग को भी समृद्ध करना चाहिए मगर सामान्य (जनरल ) ब्लागिंग मे भी वे नियमित नहीं हो पा रही हैं -क्या भारतीय नारी सचमुच इतनी विवश हो गयी है ? मैं सिद्धार्थ जी को आड़े हाथों लूँगा अगर यह स्थिति नहीं सुधरी -मेरे प्रिय ब्लॉगर के इस घोषित आत्म परिचय से भी मैं फिर कुछ कुछ सिद्धार्थ जी को ही जिम्मेदार मानता हूँ -और कुछ तो इस आत्म कथ्य से ही स्वयं स्पष्ट है -
"माँ-बाप के दिये संस्कारों के सहारे विज्ञान वर्ग से स्नातकोत्तर तक पढ़ाई करने के बाद उन्हीं के द्वारा खोजे गये जीवन साथी के साथ दो बच्चों को पालने-पोसने में अभी तक व्यस्त रही हूँ ...और सन्तुष्ट भी। नौकरी करना है कि नहीं, इस विषय में सोचने की फुरसत अभी तक नहीं मिल पायी; और जरूरत भी नहीं महसूस हुई। लेकिन अब जब बच्चे बड़े हो जाएंगे, तो समय के अच्छे सदुपयोग के लिए कुछ नया काम ढूँढना पड़ेगा। शायद एक खिड़की इस ब्लॉग जगत की ओर भी खुलती है...।"..तो क्या इस रचनाकार की रचनाओं के लिए हमें अभी भी एक लम्बा इंतज़ार करना पडेगा ? मगर आज की इस अधीर सी होती दुनिया में किसको इतने लम्बे इंतज़ार का धीरज है ?
वे खुद कहती हैं कि भाई साहब मेरी गृहस्थी पहले है -मैं निरुत्तर हो जाता हूँ ! क्या पतिनुमा प्राणी भी इतने ही समर्पित होते हैं अपनी गृहस्थी के लिए ? आप भी इनसे अनुरोध करें प्लीज कि गृहस्थी के साथ अपने को यहाँ भी सार्थक करें और अपने अवदानों से ब्लॉग जगत को उत्तरोत्तर समृद्ध करें!
मेरे इस प्रिय ब्लॉगर ने कई यादगार पोस्टें लिखी हैं ,बटलोई का चावल देखिये-
घर में ब्लॉगेरिया का प्रकोप …भूल गये बालम!!!
मुकदमेंबाज की दवा
मैं कृतित्व से बढ़कर किसी भी रचनाकार के व्यक्तित्व को सर माथे रखता हूँ (लोग लुगाई नोट कर लें ताकि सनद रहे ) और तिस पर यदि कृतित्व भी बेहतर हो जाय तो फिर पूंछना ही क्या ? सोने में सुगंध ! कुछ ऐसी ही हैं मेरी प्रिय चिट्ठाकार सुश्री रचना त्रिपाठी .अब उन्हें कितने विशेषणों से नवाजू -कुछ धर्मसंकट समुपस्थित हैं -एक तो अनुज की भार्या और दूसरे नारी!यहाँ ब्लागजगत में ऐसे लोग भरे पड़े हैं कि सहज ही व्यक्त बातों को भी औचित्य -अनौचित्य ,शील अश्लील के बटखरे से तौलने लगते हैं! मगर अपनी बात तो कहूँगा ही और कुछ अनुज से उनके ही प्रदत्त अधिकार/लिबर्टी का सदुपयोग करते हुए! रचना त्रिपाठी का व्यक्तित्व पहले . वे मेरे घर भी आ चुकी हैं -यूं कहिये की मेरे घर को त्रिपाठी दम्पति आकर धन्य कर चुके हैं ! ऐसा पता नहीं क्या हुआ कि वह शुभागमन रिपोर्ट आप तक नहीं पहुँच सकी -आज शायद कुछ भरपाई हो पाए ! उन्हें देखकर तो मुझे भी तुलसी बाबा का सा वही अनिश्चय /असमंजस सहसा हो आया -....सब उपमा कवि रहे जुठारी केहिं पटतरौ विदेह कुमारी . ....और बस उसी झलक की ललक में हिन्दुस्तानी अकेडमी के हाल के उस भव्य उदघाटन सत्र में मैंने उसी छवि को एक बार देख लेने की आस में जब निगाहें उठाई थीं तो कुछ ऐसी ही प्रत्याशा थी -रंग भूमि जब सिय पगधारी देख रूप मोहे नर नारी ...मगर घोर निराशा ही हाथ लगी ! आखिर उस समारोह में क्यों मेरा यह प्रिय ब्लॉगर अनुपस्थित हो रहा था ? किसके पास जवाब है इसका ? क्या यह कोई षड्यंत्र था ? या थी एक बेचारी गृहणी की कोई अकथ विवशता ?
रचना त्रिपाठी और प्यारे बच्चे ,उचित ही पहले गृहणी फिर ब्लागर
सम्मलेन के अकादमीय पक्ष से जहाँ मैं संतुष्ट रहा वहीं कतिपय मानव संसाधन के नौसिखिया प्रबंध (जिसे बेड टी न दिए जाने के रूप में मैंने हाई लाईट किया था -हा हा )से थोडा तमतमाया भी था .मगर मेरी प्रिय ब्लॉगर ने पूरे उलाहने के स्वर में मुझसे कहा "भाई साहब अगर आपको कोई असुविधा हुई थी तो मुझसे कहते ...." मैं तब ग्लानि बोध से दब सा गया था ! मगर फिर मन में आया कि जरूर कहता अगर आप वहां उस तामझाम का हिस्सा होतीं ! मगर उनका उलाहना अपनी जगह दुरुस्त था -मुझे औपचारिक प्रबंध से निराश होने पर इस अनौपचारिक सौजन्यता के शरण में जाना ही चाहिए था -मगर मेरे प्रिय चिट्ठाकार को कोई असुविधा न हो इसका भी तो ख्याल मुझे ही करना था ! उनसे बड़ा जो हूँ ! उम्र,ब्लागिंग और सामाजिक पद में भी !
रचना त्रिपाठी (बार बार त्रिपाठी लिख कर डिसटीन्ग्विश करना पड़ रहा है ,उफ़ !) विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं -उन्हें तो साईंस ब्लागिंग को भी समृद्ध करना चाहिए मगर सामान्य (जनरल ) ब्लागिंग मे भी वे नियमित नहीं हो पा रही हैं -क्या भारतीय नारी सचमुच इतनी विवश हो गयी है ? मैं सिद्धार्थ जी को आड़े हाथों लूँगा अगर यह स्थिति नहीं सुधरी -मेरे प्रिय ब्लॉगर के इस घोषित आत्म परिचय से भी मैं फिर कुछ कुछ सिद्धार्थ जी को ही जिम्मेदार मानता हूँ -और कुछ तो इस आत्म कथ्य से ही स्वयं स्पष्ट है -
"माँ-बाप के दिये संस्कारों के सहारे विज्ञान वर्ग से स्नातकोत्तर तक पढ़ाई करने के बाद उन्हीं के द्वारा खोजे गये जीवन साथी के साथ दो बच्चों को पालने-पोसने में अभी तक व्यस्त रही हूँ ...और सन्तुष्ट भी। नौकरी करना है कि नहीं, इस विषय में सोचने की फुरसत अभी तक नहीं मिल पायी; और जरूरत भी नहीं महसूस हुई। लेकिन अब जब बच्चे बड़े हो जाएंगे, तो समय के अच्छे सदुपयोग के लिए कुछ नया काम ढूँढना पड़ेगा। शायद एक खिड़की इस ब्लॉग जगत की ओर भी खुलती है...।"..तो क्या इस रचनाकार की रचनाओं के लिए हमें अभी भी एक लम्बा इंतज़ार करना पडेगा ? मगर आज की इस अधीर सी होती दुनिया में किसको इतने लम्बे इंतज़ार का धीरज है ?
वे खुद कहती हैं कि भाई साहब मेरी गृहस्थी पहले है -मैं निरुत्तर हो जाता हूँ ! क्या पतिनुमा प्राणी भी इतने ही समर्पित होते हैं अपनी गृहस्थी के लिए ? आप भी इनसे अनुरोध करें प्लीज कि गृहस्थी के साथ अपने को यहाँ भी सार्थक करें और अपने अवदानों से ब्लॉग जगत को उत्तरोत्तर समृद्ध करें!
मेरे इस प्रिय ब्लॉगर ने कई यादगार पोस्टें लिखी हैं ,बटलोई का चावल देखिये-
घर में ब्लॉगेरिया का प्रकोप …भूल गये बालम!!!
मुकदमेंबाज की दवा
बउका की तो बन आयी...!
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
ऐसी की तैसी उन सबकी ....ये नया नया जोश है अभी!
कभी आपने " गेट क्रैश" किया है? मतलब बिन बुलाये मेहमान बनकर शादी व्याह के मंडपों या दूसरे उत्सवों की दावतों के तर माल पर हाथ साफ किया है? संकोच न कीजिये सच सच बता दीजिये! अब इसमें हिचक काहे की ..अपने प्रधानमंत्री की शान में ओबामा साहब द्वारा दी गयी पार्टी में तो बिन बुलाये पूरे एक दम्पति ही नमूदार हो गए ! अभेद्य सुरक्षा को भी तार तार करते जा पहुंचे ओबामा साहब तक और बाकायादा हाथ वाथ मिलाया -भोज पर हाथ साफ़ किया और चलते बने! अब इतने ठाठ बाठ से और वह भी सपत्नीक जाने वाले को रोकने की हिम्मत भी कौन करे ...ये मामला तो आप पढ़ ही चुके हैं! इन दिनों शादी व्याह के मौके पर आये दिन चल रहे दावतों के दौर ने ऐसी कई यादें कुरेद डाली!
हम तो शुरू से ही एक "बे" फालतू के से आत्म गौरव के शिकार रहे और ऐसे क्षणों के लुत्फ़ और रोमांच से इसलिए वंचित भी ! साथी संगाती ऐसे अवसरों का खूब लाभ उठाते थे और लौट कर अपने शौर्य /चौर्य और उडाये गए दावत के मीनू की चर्चा जब करते थे तो उनके मौज मस्ती और अपने आहत स्वाभिमान से मेरी हालत पतली हो जाती थी! ऐसे शौर्य गान को सुन सुन कर कई बार आहत आत्मसमान कृत संकल्प भी हुआ कि हम अगली ही किसी पार्टी में खुद ही जा पहुंचेगें और अपने शौर्य की परीक्षा ले ही लेगें मगर ऐसा न हुआ और उम्र की देहारियाँ पार होती गयीं -कहते हैं न जो शौक बचपन और जवानी में पूरे न हो पाए उन्हें बुढापे में पूरा करने को कितनो का मन हुलसता रहता है! तो हम भी इक्का दुक्का ऐसे सुअवसरों का लाभ अभी अभी बीते शादी विवाह के मौसम में उठा ही लिए और आत्म समान तेल बेचने चल पडा .... जहाँ उसे बहुत पहले ही चला जाना चाहिए था ! मगर रुकिए अभी जरा एकाध दूसरे गेट क्रेशरों के कुछ रोचक संस्मरण /आप बीतिओ से आपके ज्ञान कोशों को समृद्ध तो करता चलूँ!
मेरे होस्टल साथियों में दो जन (अब नाम नहीं दे रहा ....) हैबिचुअल गेट क्रेशर हुआ करते थे! मेरे एक मित्र जो इन दिनों बड़े भारी पद पर तैनात हैं उन दिनों एक गरीब बैकग्राउंड से होते थे और अपनी कई दमित इच्छाओं का आउटलेट ढूँढा करते थे और बड़े बड़े जलसे उत्सवों में जाकर अपने इन्फीरियारटी काम्प्लेक्स को दुरुस्त करते थे .इसके लिए उनके रूम पार्टनर जो एक बड़े घराने से थे ने दयार्द्र होकर उनके लिए एक सूट और उस समय के एक प्रचलित टाई ब्रांड जोडियक की टाई का भी इंतजाम कर दिया था और साहबजादे अपने उस सुदामा मित्र को साथ लेकर सूटेड बूटेड होकर गेट क्रैश कर जाने में माहिर हो गए थे! एक बार एक हाई प्रोफाईल विवाहोत्सव में धर ही तो लिए गए! किस्सा कोताह यह कि सुदामा मित्र को डांस करते बारातियों को देखकर नाचने का जज्बा हो आया -अभिजात मित्र ने बार बार रोका मगर वे तो आपे से बाहर हो उठे थे और उनके आदिम नृत्य ने कुछ ऐसा समा बाँधा कि इम्प्रेस हुए लोग उनसे उनका नाम धाम जाति बिरादरी और गोत्र तक भी पूंछने लगे! भरी मुसीबत -आपद धर्म का मारा बिचारा दोस्त भी अब क्या करे! स्थिति संभालनी चाही! दूसरे बाराती तो आगे के अजेंडे में लग गए मगर एक मानुष अड़ गया कि आप लोग आखिर हो कौन साफ़ साफ़ बता ही दीजिये!जी मजबूत कर एक अंतिम कोशिश की मित्र ने! "जी हम दूल्हे के खास मित्र हैं और उसी ने आग्रह से हमें बुलाया है "...फिर प्रतिप्रश्न " मगर उसके तो हर दोस्त को हम जानते हैं ,आप अपना पूरा परिचय दीजिये " ..पहली बार मित्र द्वय के पैरो तले जमीन और हाथों से दावत के पकवानों की थालियाँ फिसलती नजर आयीं ..मगर मरता क्या न करता ...एक बार और हिम्मत दिखाई और इस बार पूरे आवेश में ,"मगर आप कौन है जो इतना पूंछ पछोर कर रहे हैं" ..."जी मैं दूल्हे का बाप हूँ "उत्तर था! अब काटो तो खून नहीं ..माफी वाफी पर उतर आये करकट दमनक मित्र! मगर एक अप्रत्याशित बात हो गयी -दूल्हे के बाप ने कहा ,"नहीं नहीं अब आयें हैं तो शादी निपटा के जाएँ इतने वेल मैनर्ड ,ड्रेस्ड होकर आप दोनों ने तो बारात की रौनक बढा दी है -आभारी तो हम हैं आपके ,आईये आईये खाना वाना खा के ही जाईये! " अब अँधा क्या चाहे दो आँखे ! मित्र द्वय उस पार्टी में भी खूब जीमे!
मगर एक गेट क्रेशर का अनुभव खुशहाल नहीं रहा! अब दिखावे का ट्रेंड कुछ ऐसा चल पड़ा है कि गमी और खुशी के अवसरों पर दिए जाने वाले भोज का अंतर भी मिटता जा रहा है! ऐसे ही मेरे नायक गेट क्रेशर थोडा जल्दी ही एक दावत में जलवा फरोश हो गए! पूरा सज धज के! काफी देर हुई खाना सर्व होने में तो उकता के किसी से पूंछ ही बैठे कि भाई साहब बारात में इतनी देर क्यों हो रही है! उत्तर हतप्रभ करने वाला था -कैसी बारात ..यह तो फलाने की तेरहीहै ! त्रयोदश भोज है आज ! उलटे पाँव हमारा नायक भाग निकला वहां से!
अभी उस दिन जब मेरे लंगोटिया यार और के जी एम सी लखनऊ से एम डी डॉ राम आशीष वर्मा ने रात नौ बजे फोन किया कि बनारस पहुँच रहा हूँ अमुक जगह पर... शादी में फौरन पहुँचिये तो अब मैं करता ही क्या ? ड्राइवर जा चुका था, उसे बुलाना ठीक नहीं था ,इतनी रात तो बेटे से ही गुजारिश किया कि चलो छोड़ दो भाई उत्सव स्थल तक ! वह तैयार तो हुआ मगर इस शर्त पर कि वहां खाना नहीं खायेगा -क्योंकि निमंत्रित नहीं है ! बेचारा ! मेरे बीते दिनों की याद दिला कर मुझे भी कुछ क्षण के लिए बिचारा बना गया ! हमने तो बाकायदा गेट क्रैश किया ! मगर उसने लाख मनुहार के बाद भी खाना नहीं खाया ! ये आज के लड़कों को हो क्या रहा है ? या हो सकता है कि कहने से धोबी गधे पर जो नहीं चढ़ते ! मगर मेरी तो जैसे धड़क खुल सी गयी हो -कल ही रात एक हाई प्रोफाईल दावत में जीम कर लौटा हूँ ! अन इन्वायिटेड ! अब एक मित्र ने फिर फोन किया कि वे मेरे घर के ही समीप के पांच सितारा होटल के बहू भोज में पधार रहे हैं और मुझे साथ चलना होगा ! इन दिनों अकेले ही हूँ परिवार सामाजिक कार्यों से बाहर है -खाना तो खाना ही था कहीं और इतना सुन्दर अवसर ? और गेट क्रैशिंग का नया नया रोमांच और रूमान तो जीम ही आये वहां से -हाँ, कई आखें जरूर पूंछती लगीं कि "भाई साहब आप कौन हैं ?" मगर ऐसी की तैसी उन सबकी ....ये नया नया शौके जोश है अभी!
हम तो शुरू से ही एक "बे" फालतू के से आत्म गौरव के शिकार रहे और ऐसे क्षणों के लुत्फ़ और रोमांच से इसलिए वंचित भी ! साथी संगाती ऐसे अवसरों का खूब लाभ उठाते थे और लौट कर अपने शौर्य /चौर्य और उडाये गए दावत के मीनू की चर्चा जब करते थे तो उनके मौज मस्ती और अपने आहत स्वाभिमान से मेरी हालत पतली हो जाती थी! ऐसे शौर्य गान को सुन सुन कर कई बार आहत आत्मसमान कृत संकल्प भी हुआ कि हम अगली ही किसी पार्टी में खुद ही जा पहुंचेगें और अपने शौर्य की परीक्षा ले ही लेगें मगर ऐसा न हुआ और उम्र की देहारियाँ पार होती गयीं -कहते हैं न जो शौक बचपन और जवानी में पूरे न हो पाए उन्हें बुढापे में पूरा करने को कितनो का मन हुलसता रहता है! तो हम भी इक्का दुक्का ऐसे सुअवसरों का लाभ अभी अभी बीते शादी विवाह के मौसम में उठा ही लिए और आत्म समान तेल बेचने चल पडा .... जहाँ उसे बहुत पहले ही चला जाना चाहिए था ! मगर रुकिए अभी जरा एकाध दूसरे गेट क्रेशरों के कुछ रोचक संस्मरण /आप बीतिओ से आपके ज्ञान कोशों को समृद्ध तो करता चलूँ!
मेरे होस्टल साथियों में दो जन (अब नाम नहीं दे रहा ....) हैबिचुअल गेट क्रेशर हुआ करते थे! मेरे एक मित्र जो इन दिनों बड़े भारी पद पर तैनात हैं उन दिनों एक गरीब बैकग्राउंड से होते थे और अपनी कई दमित इच्छाओं का आउटलेट ढूँढा करते थे और बड़े बड़े जलसे उत्सवों में जाकर अपने इन्फीरियारटी काम्प्लेक्स को दुरुस्त करते थे .इसके लिए उनके रूम पार्टनर जो एक बड़े घराने से थे ने दयार्द्र होकर उनके लिए एक सूट और उस समय के एक प्रचलित टाई ब्रांड जोडियक की टाई का भी इंतजाम कर दिया था और साहबजादे अपने उस सुदामा मित्र को साथ लेकर सूटेड बूटेड होकर गेट क्रैश कर जाने में माहिर हो गए थे! एक बार एक हाई प्रोफाईल विवाहोत्सव में धर ही तो लिए गए! किस्सा कोताह यह कि सुदामा मित्र को डांस करते बारातियों को देखकर नाचने का जज्बा हो आया -अभिजात मित्र ने बार बार रोका मगर वे तो आपे से बाहर हो उठे थे और उनके आदिम नृत्य ने कुछ ऐसा समा बाँधा कि इम्प्रेस हुए लोग उनसे उनका नाम धाम जाति बिरादरी और गोत्र तक भी पूंछने लगे! भरी मुसीबत -आपद धर्म का मारा बिचारा दोस्त भी अब क्या करे! स्थिति संभालनी चाही! दूसरे बाराती तो आगे के अजेंडे में लग गए मगर एक मानुष अड़ गया कि आप लोग आखिर हो कौन साफ़ साफ़ बता ही दीजिये!जी मजबूत कर एक अंतिम कोशिश की मित्र ने! "जी हम दूल्हे के खास मित्र हैं और उसी ने आग्रह से हमें बुलाया है "...फिर प्रतिप्रश्न " मगर उसके तो हर दोस्त को हम जानते हैं ,आप अपना पूरा परिचय दीजिये " ..पहली बार मित्र द्वय के पैरो तले जमीन और हाथों से दावत के पकवानों की थालियाँ फिसलती नजर आयीं ..मगर मरता क्या न करता ...एक बार और हिम्मत दिखाई और इस बार पूरे आवेश में ,"मगर आप कौन है जो इतना पूंछ पछोर कर रहे हैं" ..."जी मैं दूल्हे का बाप हूँ "उत्तर था! अब काटो तो खून नहीं ..माफी वाफी पर उतर आये करकट दमनक मित्र! मगर एक अप्रत्याशित बात हो गयी -दूल्हे के बाप ने कहा ,"नहीं नहीं अब आयें हैं तो शादी निपटा के जाएँ इतने वेल मैनर्ड ,ड्रेस्ड होकर आप दोनों ने तो बारात की रौनक बढा दी है -आभारी तो हम हैं आपके ,आईये आईये खाना वाना खा के ही जाईये! " अब अँधा क्या चाहे दो आँखे ! मित्र द्वय उस पार्टी में भी खूब जीमे!
मगर एक गेट क्रेशर का अनुभव खुशहाल नहीं रहा! अब दिखावे का ट्रेंड कुछ ऐसा चल पड़ा है कि गमी और खुशी के अवसरों पर दिए जाने वाले भोज का अंतर भी मिटता जा रहा है! ऐसे ही मेरे नायक गेट क्रेशर थोडा जल्दी ही एक दावत में जलवा फरोश हो गए! पूरा सज धज के! काफी देर हुई खाना सर्व होने में तो उकता के किसी से पूंछ ही बैठे कि भाई साहब बारात में इतनी देर क्यों हो रही है! उत्तर हतप्रभ करने वाला था -कैसी बारात ..यह तो फलाने की तेरहीहै ! त्रयोदश भोज है आज ! उलटे पाँव हमारा नायक भाग निकला वहां से!
अभी उस दिन जब मेरे लंगोटिया यार और के जी एम सी लखनऊ से एम डी डॉ राम आशीष वर्मा ने रात नौ बजे फोन किया कि बनारस पहुँच रहा हूँ अमुक जगह पर... शादी में फौरन पहुँचिये तो अब मैं करता ही क्या ? ड्राइवर जा चुका था, उसे बुलाना ठीक नहीं था ,इतनी रात तो बेटे से ही गुजारिश किया कि चलो छोड़ दो भाई उत्सव स्थल तक ! वह तैयार तो हुआ मगर इस शर्त पर कि वहां खाना नहीं खायेगा -क्योंकि निमंत्रित नहीं है ! बेचारा ! मेरे बीते दिनों की याद दिला कर मुझे भी कुछ क्षण के लिए बिचारा बना गया ! हमने तो बाकायदा गेट क्रैश किया ! मगर उसने लाख मनुहार के बाद भी खाना नहीं खाया ! ये आज के लड़कों को हो क्या रहा है ? या हो सकता है कि कहने से धोबी गधे पर जो नहीं चढ़ते ! मगर मेरी तो जैसे धड़क खुल सी गयी हो -कल ही रात एक हाई प्रोफाईल दावत में जीम कर लौटा हूँ ! अन इन्वायिटेड ! अब एक मित्र ने फिर फोन किया कि वे मेरे घर के ही समीप के पांच सितारा होटल के बहू भोज में पधार रहे हैं और मुझे साथ चलना होगा ! इन दिनों अकेले ही हूँ परिवार सामाजिक कार्यों से बाहर है -खाना तो खाना ही था कहीं और इतना सुन्दर अवसर ? और गेट क्रैशिंग का नया नया रोमांच और रूमान तो जीम ही आये वहां से -हाँ, कई आखें जरूर पूंछती लगीं कि "भाई साहब आप कौन हैं ?" मगर ऐसी की तैसी उन सबकी ....ये नया नया शौके जोश है अभी!
सोमवार, 7 दिसंबर 2009
और ये है सोलहवीं नायिका ....अनुशयाना!
नायिका भेद शास्त्र के एक लोकप्रिय लेखक हुए हैं भानुदत्त. उनके अनुसार अनुशयाना वह नायिका है जो प्रिय मिलन में बाधा उत्पन्न हो जाने से उदास है और यह नायिका तीन प्रकार की होती है !पहली तो वह जो वर्तमान के मिलन स्थल के नष्ट हो जाने से दुखी हो जाती है और दूसरी इस आशंका से की कालांतर में किसी भी कारण (जैसे किसी अन्य से विवाह के कारण )पूर्व प्रेमी से किसी उपयुक्त मिलन स्थल के अभाव के कारण मिलना न हो सकेगा ! और तीसरी अनुशयाना नायिका वह जो किसी बाधा के समुपस्थित हो जाने से संकेत/ अभिसार /मिलन स्थल पर न पहुँच पाने की व्यथा से उद्विग्न हो गयी है !
अनुशयाना के भानुदत्त के तृतीय प्रभेद को लेकर राकेश गुप्त जी ने कितना मार्मिक काव्य वर्णन किया है ,आप भी देखें -
अनुशयाना के भानुदत्त के तृतीय प्रभेद को लेकर राकेश गुप्त जी ने कितना मार्मिक काव्य वर्णन किया है ,आप भी देखें -
लता कुञ्ज से पड़ा कान में
मृदु वंशी -रव जब श्यामा के,
विकल अधीर हुए तन मन सब
पिया- मिलन को तब कामा के ;
दारुण दृष्टि ननद की उलझी
बेडी बन पग में भामा के ;
पीती रही विवश हो ,बाहर
गिर न सके आंसू श्यामा के
पुनश्च:यह श्रृंखला अभी समाप्त नहीं हुई है- अभी चंद नायिका उपभेद रह गए हैं ! तत्पश्चात पंचो की राय पर नायक भेद भी चर्चा में आएगा ही और तब जाकर उपसंहार के बाद यह श्रृखला समाप्त होगी ! लिहाजा धैर्य बनाये रखेगें !
रविवार, 6 दिसंबर 2009
मुदिता नायिका (नायिका भेद -१५)
मुदिता नायिका वह है जिसे अप्रत्याशित ,अनपेक्षित और अचानक ही प्रिय मिलन का सन्देश या मौका मिल जाय ! तब उसके आह्लाद -आनंद का पारावार नहीं रहता ! मुदिताओं के दो प्रकार बताये गए हैं -प्रिय मिलन की सुनिश्चितता को इंगित करने वाली बात सहसा सुनकर आनंद विभोर होने वाली नायिका मिलन -निश्चय मुदिता कहलाती है तो प्रिय से अचानक ही मिलन हो जाने पर वही मिलन मुदिता बन जाती है .अब भला राकेश गुप्त जी से बेहतर इन नायिकाओं को कौन शब्द- पद्य बद्ध कर सकता है ! आईये मुदिता नायिका को लेकर लिखी उनकी कुछ रचनाओं का आस्वादन किया जाय !
( १)
दिया निमंत्रण नंदराय ने ,
पूजा का उत्सव था भारी ;
जा न सकूंगी, सोच व्यथित थी
कृष्ण प्रिया,वृषभान -दुलारी .
'मुझे काम है',कहा पिता ने ,
"मथुरा जाने की तैयारी. "
"तुम्ही चली जाना",माँ बोली ;
पुलक उठी सुन मुग्ध कुमारी
(2 )
पूजा करने गोवर्धन की
चली साथ सखियों के राधा ;
बिछुड़ गयी ,संग- संग चलने मे
हुई भीड़ के कारण बाधा .
"कैसे कहाँ उन्हें मैं ढूँढू ?"
हुआ राधिका का मन आधा ;
तभी अचानक देख श्याम को
फूल उठी वह प्रेम अगाधा
(३)
लौट रही थी यमुना तट से
ध्यानमग्न बाला अलबेली ;
ठोकर लगी ,मोच सी आई ,
लंगडाती तब चली अकेली .
पीछे छोड़ उसे आगे सब
निकल गयीं वे निठुर सहेली ;
तभी प्रकट हो दिया सहारा ,
बाहु कृष्ण ने कटि मे मेली
चित्र :स्वप्न मंजूषा शैल http://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/12/blog-post_05.html
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
आज चर्चा में हैं दो नायिकायें -गुप्ता और लक्षिता!
आज दो नायिकाओं का वर्णन जिनमें बहुत कुछ गोपनीयता के आवरण में है -ये हैं गुप्ता और लक्षिता ! गुप्ता उस नायिका को कहते हैं जो प्रिय मिलन को गोपनीय रख पाने में सफल हो रहती है जबकि लक्षिता का गोपन प्रेम किसी के द्वारा देखदेख सुन लिया जाता है.गुप्ता प्रिय से मिलन के चिह्नों का कोई अन्य कारण बताकर अपने गुप्त प्रेम को छिपाने में कैसे सफल रहती है इसका राकेश गुप्त जी ने किस प्रकार रोचक चित्रण किया है-
पौ फटने से भी पहले ही
पनघट को मैं चली हठीली ;
संध्या की रिमझिम के कारण
राह बनी थी कुछ रपटीली ;
संभल न पाई , छलकी गागर ,
हुई शिखा से नख तक गीली
सखी ,साक्षिणी बन संग चल तूं
न हों सासू जी नीली पीली
जब नायिका के प्रिय मिलन का भेद किसी को पता हो जाता है यानि उसका गुप्त मिलन अन्य के द्वारा लक्षित हो उठता है तो उस स्थिति में ही नायिका लक्षिता कहलाती है -
राकेश गुप्त का यह विवरण तो देखिये -
चली कामिनी पूजा करने
लेकर नीराजन की थाली .
अटक गयी संकेत कुञ्ज में ,
जहां अवस्थित थे वनमाली .
देख लौटते स्वेद -स्नात हँस
बोली नर्म -सखी मतिवाली -
"धन्य!आज की जीभर तुमने
इष्टदेव की पूजा ,आली!"
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
एक चतुर नायिका है विदग्धा!
वह नायिका जो प्रिय से मिलन /संपर्क की व्यवस्था अपनी पहल पर चतुराई से कर लेती है विदग्धा है ! यह वचन विदग्धा और क्रिया विदग्धा दोनों ही हो सकती है -ज़ब संकेतात्मक द्विअर्थी शब्दों/वचनों से पिया मिलन का मार्ग वह खुद प्रशस्त कर लेती है तो स्वयं दूतिका भी बन जाती है ,मतलब वचन विदग्धा ही स्वयं दूतिका है!
राकेश गुप्त जी की ये पंक्तियाँ देखिये -
राकेश गुप्त जी की ये पंक्तियाँ देखिये -
पिता गए परदेश ,कह गए ,
"नहीं छोड़ना घर सूना, री! "
चली पिरोजन में माँ यह कह ,
"रहना सजग राधिका प्यारी! "
रूठ गयीं सखिया मत्सरवश ,
उनको मना मना मैं हारी !
आज अकेली भीत विमन मैं ,
मत मिलने आना गिरधारी !
"नहीं छोड़ना घर सूना, री! "
चली पिरोजन में माँ यह कह ,
"रहना सजग राधिका प्यारी! "
रूठ गयीं सखिया मत्सरवश ,
उनको मना मना मैं हारी !
आज अकेली भीत विमन मैं ,
मत मिलने आना गिरधारी !
नायिका प्रत्यक्षतः तो प्रिय को मना कर रही है कि वे ना आये मगर मिलन के इतने सुन्दर अवसर को हाथ से न जाने का चतुराई भरा संकेत निमंत्रण भी वह दे रही है -"आज तो मैं निपट अकेली ,डरी सहमी सी ,क्लांत सी हूँ " .प्रकारांतर से यह मिलन का एक पावरफुल आमंत्रण ही तो है ! प्रगटतः उसके शब्द मिलन की मनाही कर रहे हैं, मगर सच में वह कह रही है ,
"आ जाओ न प्रिय आज मिलन का सुनहरा मौका है ..."
नायिका उपभेद में आगे हम क्रिया विदग्धा की भी चर्चा करेगें !
नायिका भेद पर नैतिक -शुद्धतावादियों ,समाज के पहरुओं और लंबरदारों की भृकुटियाँ तन रही हैं -हम उन्हें भी माकूल जवाब देगें -उचित समय और अवसर पर !
चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल
चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल