बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

गाँव में ब्राडबैंड के साथ मैंने जगाई अपनी दीवाली (एक माईक्रो पोस्ट )!

अब गाँव कैलाश गौतम की मशहूर रचना' गाँव गया था गाँव से भागा 'से कुछ अलग रूख अपना रहे हैं यानी आकर्षण उत्पन्न कर रहे हैं -अब जैसे दूर संचार की क्रान्ति ही ले लीजिये .मैं अपने पैतृक गाँव दीवाली मनाने के लिए आया -मेरा गाँव राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ पर जौनपुर शहर से १७ किलोमीटर दूर लखनऊ की दिशा में है .मेरे अनुज डॉ मनोज मिश्रा ने लैपटाप एक वर्ष पहले खरीदा था ,मगर केवल wll पर इन्टरनेट की सुविधा जो कि बहुत धीमी थी के चलते ब्लाग लेखन में पदार्पित नहीं हुए थे -कल ही यानी ठीक दीपावली के दिन ही बी एस एन एल ने यह सुविधा भी यहाँ मुहैया करा दी और हम लोगों की दीपावली मानों जग गयी -दीपावली पर एक ब्लॉगर को इससे बढ़कर क्या सौगात चाहिए -मैं यह पोस्ट अनुज के ही लैपटाप से ब्राडबैंड के जरिये कर रहा हूँ -हर हुनर वाले दीवाली के दिन अपने हुनर को आजमाते है -जगाते हैं और गाव में आकर भी मैंने अपनी ब्लाग्जीविता को जगा लिया है और फूल कर कुप्पा होरहा हूँ -अब भाई मनोज के चिट्ठाजगत में लाने की तैयारी शुरू हो गयी है -उनके भी ब्लॉग को आपका स्नेह मिलेगा -अभी तो नामकरण की चर्चा चल रही है -एक नाम पर विचार चल रहा है -मा पलायनम ! यह कैसा रहेगा ? अरे यह तो माईक्रो पोस्ट होनी थी ..अतः विराम !

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

आईये दीपावली पर हम करें उल्लू स्तवन !


दीपावली पर हम मैया लक्ष्मी की पूजा की तैयारियां कर रहे हैं तो लगे हाथ लक्ष्मी मैया के वाहन का भी पूजन- स्तवन हो जाय !
पर क्या कभी आपने विचार किया कि लक्ष्मी वाहन उल्लू ही क्यों ? सरस्वती का वाहन हंस है -फिर लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों ? उल्लू जिसे मूर्खता के अर्थ में रूढ़ मान लिया गया है .पर क्या उल्लू सचमुच मूर्ख है ?
वैज्ञानिक राय बिल्कुल भिन्न है -वे उल्लू को एक बेहद सजग रात्रिचर प्राणी मानते हैं -उसका मुंह तो देखिये दीगर परिंदों से बिल्कुल अलग उसके "धीर गंभीर " से चेहरे पर आंखे बिल्कुल सामने हैं .वह हल्की सी आहट पर चौकन्ना हो जाता है .शायद इन्ही खूबियों के चलते हमारे आदि कवि मनीषियों ने लक्ष्मी को वाहन के रूप में उल्लू का तोहफा दिया होगा ? पर एक अच्छे खासे से पक्षी को भारतीय सन्दर्भ में उल्लू क्यों मान लिया गया ? जीहाँ यूनान में उल्लू बुद्धि का प्रतीक माना गया है -अंगेरजी में ऐन आवलिश अपियर्रेंस का मतलब ही है विद्वता पूर्ण चेहरा और अक्सर न्यायधीशों के लिए 'ऐन आवलिश अपीयरेंस ' का जुमला इस्तेमाल होता है .वह कविता भी आपने शायद सुनी पढी हो -एक विग्य उल्लू बैठा था ओक की डाल पर ......
फिर ये माजरा है क्या -उल्लू यहाँ भारत में ही उल्लू क्यों है ? यह मामला है सदियों से विपन्नता का दंश झेल रहे भारतीय कवि मनीषियों का जिन पर लक्ष्मी कभी भी कृपालु नहीं रहीं -तो यह एक खीझ है जो कभी हजारो साल पहले हमारे पूरवज मनीषियों ने लक्ष्मी पर उतारी थी, उन्हें वाहन के तौर पर उल्लू अलाट कर और उसे मूर्खता का जामा पहना कर ।
किसी भी विद्वान को लें लक्ष्मी न जाने क्यों उससे रूठी हुयी हैं -अब अपवाद के तौर पर ऐसे लोग भी दिख जाते eहै जिन पर सरस्वती और लक्ष्मी दोनों की कृपा होती है मगर पुराण -इतिहास गवाह है विद्वान् ज्यादातर पैसे कौडी के मामले में 'दरिद्र' ही रहे हैं -उन पर लक्ष्मी कभी भी कृपालु नही रही हैं -इसलिए ही विद्वानों को ख़ुद को सरस्वती पुत्र eकहलाने में ज्यादा गौरव की अनुभूति होती है .और उहोने भी सदियों से ही लक्ष्मी की घोर उपेक्षा से खिन्न होकर उनके साथ सरस्वती की तुलना में काफी भेदभाव किया है और अपनी खीझ मिटाई है ।
अब यही देखिये सरस्वती को उन्होंने वाहन के रूप में हंस अलाट किया -कितना सुन्दर है हंस -यही नही उसमें नीर क्षीर विवेक की भी क्षमता डाली -वह केवल मानसरोवर का मोती चुगता है .जब लक्ष्मी जी को वाहन अलाट करने की बात आयी तो उनके लिए ऐसे वाहन की तलाश शुरू हुई जो रात्रि चर हो क्योंकि धन /कालाधन कमाने के सारे कामधाम रात के अंधेरे में ही संपन्न होते हई ,वह वाहन मांसाहारी हो यानी वैष्णवी वृत्ति से दूर ! मजेदार तो यह कि विष्णु को भी धता बता कर एक घोर अवैष्णवी वाहन लक्ष्मी को दिया गया .यह घोर मांसाहारी है -क्रूरकर्मा है .आदि आदि और लगता है इससे भी कविजनों को संतुष्टि नही हुई तो उसे मूर्खता के अर्थ मे भी रूढ़ कर प्रकारांतर से मानो यह कहा गया कि लक्ष्मी केवल उल्लुओं पर ही मेहरबान होती हैं - लक्ष्मी द्बारा की जा रही उनकी घोर और निरंतर उपेक्षा से ऊब कर उनके प्रति अपना आक्रोश यूँ जाहिर कर दिया और वृथा न जाई देव ऋषि वाणी के अनुसार वह व्यवस्था कालजयी बन गयी है ।उल्लू उल्लू न होने के बावजूद भारतीय मनीषा में मूर्खता का पर्याय बना है .
अब ज्ञानी जन भी यह मानते भये हैं कि बदलते परिदृष्य में वित्त का जुगाड़ ज्यादा जरूरी है .अतः हे माँ लक्ष्मी के वाहन मैं तुमसे अपने पुरनियों के किए धरे की माफी माँगता हूँ -तू तो मेरे घर का द्वार लक्ष्मी मैया को दिखा और इस नयी नयी हिन्दी ब्लॉगर बिरादरी के यहाँ भी उनका कम से कम एक विजिट करा दे .....हम तुम्हे ज्ञानी मानते हैं -हम नए युग के लोग है अर्थ की महिमा को बखूबी मानते हैं -अतः हे निशाचर मुझ अकिंचन पर भी रहम कर -हमारे पूर्वजों के किए धरे की खामियाजा हमसे मत वसूल -हम हंस को नही अब तुम्ही को पूजने को तैयार है - अभी से इसी दीपावली से ! जय उल्लू भ्राता की ! जय लक्ष्मी मैया की !
मित्रों आप सभी को दीपावली पर्व पर सुख -समृद्धि की हार्दिक शुभकामनाएं !

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

ब्लॉगर या टिप्पणीकार -काके लागूं पायं !

अनूप शुक्ल जी के लिए सचमुच यह भाव सच्चे मन से निःसृत हो रहा है कि वे ब्लागजगत के एक कुशल टिप्पणी भाष्यकार हैं -अभी एक दो दिन पहले ही उनका टिप्पणी भाष्य का नया संस्करण आया है उनके चिट्ठे पर -आपको भी याद होगा .जिन्हें याद नही उनके लिए शायद यह चर्चा नही है .उन्होंने अपनी बात शास्त्री जी के टिप्पणी वाली चर्चित पोस्ट पर लिखी थी -पहले भी इस खाकसार की टिप्पणी वाली पोस्ट पर उन्होंने जो टिप्पणी की थी उसमें अपने एक पहले के टिप्पणी चर्चा का जिक्र किया था -लुब्बेलुआब यह कि टिप्पणी शास्त्र पर उनका अब एकाधिकार सा होता जा रहा है -और यह बात मैं अभिधा में ही कह रहा हूँ कोई यमक या श्लेष नहीं .मैंने इन्हे टिप्पणी शास्त्र विशारद तभी मान लिया था जब उन्होंने यह जोरदार टिप्पणी की कि ज्ञान जी का ब्लॉग वहाँ आने वाली टिप्पणियों के लिए ही जानी जाती हैं -हाँ वहाँ ऐरो गैरों की सचमुच नही चलती क्योकि मैंने भी यह समझ बूझ लिया है कि जो ज्ञानी पुरूष की अभिजात्य मानसकिता होती है या होनी चाहिए -ज्ञान जी उसकी प्रतिमूर्ति हैं ,तो वहां जाने पर ज़रा कैजुअल अप्रोच से काम नही चल पाता इसलिए सभी यहाँ तक कि ख़ुद अनूप जी भी वहाँ अतिरिक्त सावधानी से ही टिप्पणियाँ करते हैं और ज्ञान जी के आभा मंडल को परिधि में बनाए रखते हैं (ताकि वह बिखर ना जाए ) ।
अभी अभी चिट्ठा चर्चा में हीएक मसला -मत विमत ऐसा भी आया कि कुछ मित्र केवल अपने ही लिखे पर आत्ममुग्ध हो टिप्पणियों कीअपेक्षा करते हैं -दूसरों की पढने की इच्छा ही नही करते -मानों वे सर्व ज्ञान संपृक्त हो चुके हों -मैं भी ऐसे कई लोगों को जानता हूँ ।
कभी कभी तो यही लगता है कि बीच बीच में हिन्दी जगत के पुरोधा चिट्ठाकारों को अपना महान लेखन सप्ताह -पखवारे तक स्थगित कर दूसरों का लिखा ही पढ़ते रहना चाहिए और खूब मुक्त भाव से यथा सम्भव और यथोचित टिप्पणियाँ उसी मनोयोग से करनी चाहिए जैसे कि वे अपना ख़ुद का चिट्ठा ही लिख रहे हों -पर उपदेश कुशल बहुतेरे की बात नहीं यह मैं ख़ुद शुरू करने की गंभीरता से सोच रहा हूँ .इससे कई फायदे होंगे -हम दूसरों केलेखन से जहाँ मनोयोग से परिचित होंगे वहीं एक सहिष्णुता का भाव भी ब्लॉग जगत में व्याप्त /व्यापक होगा जिसकी आज जरूरत है -अनूप जी ने भी इस बातको टिप्पणी मे ही कहा है कि दूसरों की बात के मर्म को ठीक से लोग समझे और संवाद कायम करें .तभी सार्थक चर्चा का नैरन्तर्य बना रहेगा .अब उनकी यह नसीहत ठीक से समझी गयी या नहीं राम जाने !
पता नहीं क्या क्या बातें मन में उमड़ घुमड़ रही थीं जो यह पोस्ट शुरू की पर अब इसका उपसंहार किया जाए -
समीर जी का सचमुच कितना प्रणम्य व्यक्तित्व है कि वे कितने ही पोस्टों को पढ़ते हैं टिप्पणियाँ करते हैं और अपना हर बार का धांसू फांसू पोस्ट भी लिखते हैं ,वे अभी तक तो हिन्दी ब्लागजगत के कालिदास ही हैं क्योंकि उनके बाद दूसरेनंबर पर तो कोई दीखता नहीं -तीसरे नंबर पर ज्ञान जी हैं ,शास्त्री जी हैं और कई और भी विद्वान् तेजी से उभर रहे हैं ।
तो समीर जी एक सफल चिट्ठाकार के साथ ही एक प्रखर टिप्पणीकार भी हैं ! एक परफेक्ट ब्लेंडिंग ! और बाकी सब चिट्ठाकार ज्यादा टिप्पणीकार कम हैं -एक अपवाद है अनूप जी जो चिट्ठाचर्चा के ही बहाने विशुद्धतः टिप्पणी चर्चा ही तो कर रहे हैं -वे एक टिप्पणीकार है -टिप्पणी भाष्य कार भी हैं .अब मैं निष्पत्ति पर आ रहा हूँ -किसके पायं लगूं -एक महान चिट्ठाकार के या किसी महान टिप्पणीकार के ! अभी महान चिट्ठाकार का शायद अवतरण नही हुआ है -समीर जी अगर टिप्पणी कम कर दे तो अवश्य उस श्रेणी में आ जायेंगे पर शायद यह होगा नहीं और तब तक अनूप जी को ही एक विद्वान टिप्पणीकार भी स्वीकार करते हुए उनके पायं -जो पता नही धोती में छुपे हैं या पतलून या पैंट में ,लगना ही श्रेयस्कर है .आईये हम एक श्रेष्ठ टिप्पणीकार का अनुसरण करें -महाजनों ये गतः सा पन्थाः !

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

यादें -पुण्यस्मृति दिवस की !


५ अक्टूबर को पिता जी का पुण्य दिवस था .यह विगत ९ वर्षों से एक आयोजन के रूप में मेरे पैतृक निवास -चूडामणिपुर ,बख्शा ,जौनपुर में मनाया जाता रहा है .ऐसा नहीं है कि उन उनके दोनों पुत्र -एक मैं और मेरे अनुज डॉ .मनोज मिश्र बहुत लायक पुत्र हैं और एक अनुकरणीय कार्य कर रहे हैं .बल्कि यह एक जन कार्यक्रम है ,बहुत अच्छी शिक्षा और मेधा के बावजूद पिता जी गावं में ही रह गए -और आज उनकी लोक गम्यता ही प्रतिस्मृति के रूप में उन्हें वापस हो रही है -लोगों की उनके प्रति यह स्वप्रेरित श्रद्धांजलि है जो हर वर्ष उनकी स्मृति को तरोताजा करती है .अंगरेजी की एक कहावत है कि जीवन में जैसा निवेश आप करते हैं वही आपको उत्तरार्ध में वापस होता है . पिता जी की रचनाएं सरस्वती में छपी , वे कल्याणमन लोढा और आचार्य विष्णु कान्त शास्त्री जी के स्टुडेंट रहे .रामचरित मानस में उनका अगाध प्रेम था -भारतीय वांग्मय पर तो उनका अध्ययन विस्मित करने वाला था -इस ब्लॉग पर समय समय पर उनकी रचनाएं भी आपको पढने को मिलेंगी .साहित्यानुराग मेरी नजर में उनका ऊज्वल, सबल पक्ष था और राजनीति में रूचि दुर्बल पक्ष .शायद राजनीति ने उनकी असीम संभावनाओं पर ग्रहण भी लगाया . सभी तो आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हो सकते जिन्होंने कविता और राजनीति को साथ साथ साध लिया .

उन्हें नौकरी और किसी की दासता स्वीकार नहीं थी -उनका आदर्श वाक्य ही था -पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं .यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है -मुझे अफसोस होता है कि इस बात पर मुझ मूढ़ द्वारा बहस कर उनका कईबार दिल दुखाया गया .पर आज लगता है मनुष्य जैसे नश्वर और क्षणभंगुर जीव के लिए समझौते करते रहना सचमुच कोई पुरुषार्थ नहीं है -उन्होंने अपने शर्तों पर जीवन जिया और आज क्षेत्र में अपनी यशः काया में जीवित हैं ।
मैं सोचता हूँ मैंने तो एक चाकरी कर ली है पर क्या इस स्थूल शरीर के बाद भी मुझे कोई जानेगा ? वैसे ऐसी मेरी कोई इच्छा नहीं है पर कहते हैं न कि अमरता की चाह तो सभी में होती है -सभी अपनी यशः काया में बने रहना चाहते हैं .
पर मुझे कभी कभी यह सुखानुभूति अवश्य होती है कि मैं एक बहुत ही योग्य पिता का पुत्र हूँ और इसलिए ख़ुद को नालायक भी नहीं कह सकता -क्योंकि आत्मा वै जायते पुत्रः .
पुनश्च -मित्रों यह मेरी एक नितांत निजी पोस्ट है ,आप पढ़ तो लें पर टिप्पणी आवशयक नहीं .

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

महाभ्रष्ट हूँ क्या कर लोगे ?

महाभ्रष्ट हूँ क्या कर लोगे ?
गर्व से कहता ताल ठोंक कर -
महाभ्रष्ट हूँ क्या कर लोगे ?
चाहे जितना ही लिख मारो
प्रवचन करते रहे शास्त्र पर ,
नही असर पड़ने वाला है
वज्र हुआ ईमान बेच कर
नित नूतन महफ़िल सजती है ,
स्वर्ग कैद है हाथ हमारे
मरे थैलों पर चलते हैं -
मुल्ला पंडित कवि बेचारे ,
गर्व से कहता ताल ठोक कर
महाभ्रष्ट हूँ क्या कर लोगे ?
सुरा सुन्दरी की दुनिया से
किंग कोबरा सा फुफ्कारे
काले धन के उच् शिखर से
हाथ उठा फिर फिर ललकारे
भ्रष्ट रहा हूँ ,भ्रष्ट रहूँगा -
चाहे जितना जोर लगा ले !
गर्व से कहता ताल ठोक कर
महाभ्रष्ट हूँ क्या कर लोगे ?
टूटे नेता टूटे अफसर
टूटी जनता टूटी आशा
विद्यामंदिर भी सब टूटे
टूट रहा समाज का नाता ,
सब कुछ टूट चुका है लेकिन
मैं दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता ,
गर्व से कहता ताल ठोंक कर
महा भ्रष्ट हूँ क्या कर लोगे ?
प्रेस मालिक अपना जिगरी है
सम्पादक ? मेहमान हमारे !
राजा दादा ,अपना ही है
कौन तुम्हारे है रखवारे ?
साक्ष्य हमारे टुकडों जीता
न्याय हमारे पाकेट में है
शासन मेरी बाट जोहता
सारी सत्ता साथ हमारे
जो सक्षम हैं वे सब मेरे-
किसके बल तुम आँख दिखाते
गर्व से कहता ताल ठोंक कर
महाभ्रष्ट हूँ क्या कर लोगे
(राजेन्द्र स्मृति से साभार ,२०००)
यह कविता स्वर्गीय पूज्य पिता जी,डॉ राजेंद्र प्रसाद मिश्र ( सितम्बर १९४०- अक्टूबर १९९९) ने १९९० के आसपास लिखी थी .कल उनका पुण्य दिवस है और मैं इस अनुष्ठान में भाग लेने गावं (जौनपुर ) जा रहा हूँ .वहाँ नेट की सुविधा अभी नही है इसलिए यह कविता श्रद्धांजलि स्वरुप क्वचिदनयतोअपि पर आप मित्रों के लिए छोडे जा रहा हूँ ! उम्मीद है पसंद आयेगी !




गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

हिन्दू धर्म -स्फुट विचार !

इस समय हिन्दी ब्लागजगत मजहबी द्वन्द्वों से आंदोलित सा है -मजहब को लेकर सबकी अपनी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं और लोग अपने स्टैंड से एक इंच भी आगे पीछे होने को तैयार नहीं हैं .आश्चर्य तो यह है कि अब हिन्दू भी कई बातों को लेकर अकड़ने लगे हैं -यह उनका प्रतिक्रया वादी स्टैंड है !
कुछ बातें सूत्र रूप में ही कहना है -लेकिन सबसे पहले माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्बारा "हिन्दू धर्म "पर कुछ वर्ष पहले व्यक्त एक अभिमत कि "दरअसल हिन्दू धर्म एक जीवन दर्शन है -"धर्म की किसी सकीर्ण परिभाषा में इसे बाँधना मुश्किल है .आख़िर धर्म क्या है ?
जो धारण किया जाय या धारण करने योग्य हो वही धर्म है .एक उदाहरण से इसे समझें तो बात बहुत आसान हो जायेगी .रेडिंयम् एक चमकने वाला पदार्थ है -पुरानी घडियों में इसी के हलके लेप से अंधेरे में अंकों को देखकर समय ज्ञात होता था .आज रेडियम परिवार के अनेक तत्व हैं और प्रकाश विकिरण के गुण को रेडियो एक्टिविटी के नाम से जाना जाता है -यह प्रकाश विकिरण ही इन तत्वों का गुण धर्म है -उनकी रेडियोधर्मिता है ।
विज्ञान का सेवक हूँ ना इसलिए यह उदाहरण विज्ञान की दुनिया से !आख़िर मनुष्य का धर्म क्या है ! या क्या होना चाहिए ? इस पर मजहबों की पोथियाँ हैं और हम सब मनुष्य को धारण करनेवाले कितने ही उदात्त बातों को एक साँस में कह सकते हैं -पर फिर यह खून खराबा क्यों ? यह मंदबुद्धियों की देन है -जो पोंगे और कठमुल्ले बने हुए है उन्होंने अपने धर्मग्रंथों विकृत कर डाला है ,वस्तुतः उन्हें अपवित्र कर डाला है ।
अब हिंदू धर्म को ही देखिये -इतनी उदार ,व्यापक सोच शायद ही कहीं है ! यहाँ कोई प्रतिबंध नही है -
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आप इश्वर को माने या ना माने आप हिन्दू है !
आप मन्दिरजाएँ या ना जाएँ आप हिन्दू हैं
आप मांस खाएं या ना खाएं आप हिन्दू है
आप शराब पियें ना पियें आप हिन्दू हैं
आप धूम्रपान करें या करे आप हिन्दू हैं !
आप व्रत रखे या ना रखे आप हिन्दू है .
हिन्दू इतनी स्वतंत्रता को एन्जॉय करता है कि वह केवल देव दुर्लभ है !
हमारीबौद्धिक यात्रा ही "इदिमिथम कही सकई ना कोई " की रही है -चरैवेति चरैवेति की -यानी सत्य की खोजमें चलते रहो चलते रहो जिसे तुम अन्तिम सत्य मान बैठे हो वह सत्य का पासंग भी नही है -कितना वैज्ञानिक सम्मत चिंतन है यह -विज्ञान की दुनिया में फतवे नहीं होते -अंध श्रद्धा नही होती !
क्या ऐसे ही नहीं हो सकते दुनिया के सभी धर्म ?
मुझे बहुत संतोष है कि मैं हिदू हूँ क्योंकि अगर कुछ भी और होता मसलन एक मुसलमान तो मुझे इश्वर पर जबरिया विश्वास करना पङता !
क्यों सच कहा ना ?

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